विषय: केन्द्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय।
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केएसएम का उद्देश्य प्राचीन गुरु - शिष्य परम्परा पद्धति में "भारतीय को मजबूत और आत्मनिर्भर बनाना" है।
दांडी मार्च की स्मृति में पदयात्रा
संदर्भ:
भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने पर, ‘आजादी का अमृत महोत्सव’, सरकार द्वारा शुरू की गयी एक पहल की शुरुआत करते हुए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा महात्मा गांधी के नेतृत्व में किये गए ऐतिहासिक दांडी मार्च, जिसे साल्ट मार्च भी कहा जाता है, की स्मृति को पुनर्जीवित करने वाली पदयात्रा को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया गया।
- यह यात्रा, अहमदाबाद में साबरमती आश्रम से शुरू होकर 386 किलोमीटर दूर नवसारी जिले के दांडी नामक स्थान तक की जाएगी, और इसे 25 दिनों में तय किया जाएगा।
- यह पदयात्रा, भारत में अंग्रेजों द्वारा लगाए गए नमक-कर के खिलाफ ऐतिहासिक मार्च की 91 वीं वर्षगांठ के अवसर पर की जा रही है।
‘75वीं वर्षगांठ समारोह’ के बारे में:
आजादी के ‘75वीं वर्षगांठ समारोह’ कार्यक्रम, आगे बढ़ने के लिए मार्गदर्शक बल के रूप में तथा स्वप्नों और कर्तव्यों को प्रेरणा के रूप में जारी रखने हेतु 15 अगस्त, 2023 तक पांच विषय-वस्तुओं (Themes) के तहत जारी रहेगा। ये पांच विषय-वस्तु निम्नलिखित हैं:
- स्वतंत्रता संग्राम (Freedom Struggle)
- 75 साल होने पर विचार (Ideas at 75)
- 75 साल होने पर उपलब्धियां (Achievements at 75)
- 75 साल होने पर कार्रवाई (Actions at 75)
- 75 साल होने सकल्प (Resolves at 75) नमक सत्याग्रह’ के बारे में:
12 मार्च, 1930 को, महात्मा गांधी ने, अंग्रेज़ों द्वारा नमक पर लगाए गए कर के विरोध में, गुजरात के अहमदाबाद में साबरमती आश्रम से राज्य के समुद्र तटीय क्षेत्र में स्थित दांडी नामक गाँव तक ऐतिहासिक दांडी मार्च /साल्ट मार्च की शुरुआत की थी।
- यह साल्ट मार्च 12 मार्च, 1930 से शुरू होकर 6 अप्रैल, 1930 को समाप्त हुआ था।
- यह 24-दिवसीय पदयात्रा प्रकृति में पूर्णतयः अहिंसक थी, और ऐतिहासिक रूप से काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी के साथ व्यापक स्तर पर सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत हुई थी।
- दांडी में समुद्र तट पर पहुंच कर महात्मा गांधी ने गैर-कानूनी तरीके से नमक बनाकर कानून तोड़ा था।
सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत हेतु गांधीजी ने नमक सत्याग्रह को क्यों चुना?
प्रत्येक भारतीय के घर में, नमक एक अपरिहार्य वस्तु होती है, फिर भी अंग्रेजों ने लोगों को घरेलू उपयोग के लिए भी नमक बनाने से मना किया और इसे उच्च मूल्य पर दुकानों से खरीदने के लिए विवश किया गया था।
- नमक पर राज्य का एकाधिकार से जनता में काफी रोष व्याप्त था, इसी को लक्ष्य बनाते हुए गांधीजी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक व्यापक स्तर पर जनता को आंदोलित करने का विचार किया।
- नमक के लिए ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ की शुरुआत के प्रतीक के रूप में चुना गया क्योंकि नमक एक ऐसा पदार्थ माना जाता था जिस पर प्रत्येक भारतीय का मूल अधिकार था।
- दांडी मार्च के बारे में
- कारण, प्रभाव और परिणाम
- सविनय अवज्ञा आंदोलन के बारे में
- प्रमुख नेता
दांडी मार्च के महत्व और परिणामों पर चर्चा कीजिए।
स्रोत: द हिंदू
विषय: महिलाओं की भूमिका और महिला संगठन, जनसंख्या एवं संबद्ध मुद्दे, गरीबी और विकासात्मक विषय, शहरीकरण, उनकी समस्याएँ और उनके रक्षोपाय।
‘जिला चिकित्सा बोर्ड’ गठित करने हेतु याचिका
(Plea to constitute district medical boards)
संदर्भ:
उच्चतम न्यायालय द्वारा सरकार से बलात्कार के शिकार लोगों की सहायता करने हेतु स्त्री रोग विशेषज्ञों और बाल रोग विशेषज्ञों सहित जिला मेडिकल बोर्ड गठित करने की मांग करने वाली एक याचिका पर प्रत्युत्तर देने को कहा है।
अदालत ने यह भी कहा है, कि यदि किसी महिला के साथ बलात्कार होता है और वह गर्भवती हो जाती है, इस स्थिति में महिला को उसके कानूनी अधिकारों के बारे में बताया जाना चाहिए।
संबंधित प्रकरण:
अदालत द्वारा एक बलात्कार की शिकार एक 14 वर्षीय बालिका द्वारा गर्भपात कराने की मांग से संबंधित मामले की सुनवाई की जा रही है।
हालांकि, शीर्ष अदालत द्वारा उसके लिए मेडिकल बोर्ड की एक रिपोर्ट भेजने के बाद, उसने गर्भपात कराने की मांग हेतु अपनी याचिका वापस ले ली।
आवश्यकता:
इस मामले ने हर जिले में मेडिकल बोर्ड स्थापित करने की आवश्यकता को उजागर किया है। इससे बलात्कार के शिकार लोगों को शुरुआती चिकित्सा सुविधाओं का लाभ मिल सकेगा तथा इन्हें और अधिक अतिरिक्त पीड़ा से गुजरने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा।
- महिलाओं के लिए प्रजनन संबंधी चुनाव अथवा विकल्प, उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और शारीरिक स्वायत्तता पर गंभीर प्रतिबंध लगाने वाले क़ानून के खिलाफ जबरदस्त दबाव डाला जा रहा है।
- वर्ष 1971 के इस कानून के खिलाफ, बलात्कार की शिकार तथा कई अन्य प्रभावित महिलाएं भी शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटा चुकी है।
- अब तक, शीर्ष अदालत, मामला-दर मामला आधार पर गर्भापात संबंधी याचिकाओं का समाधान करती रही है।
क़ानून के प्रमुख प्रावधान:
- मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971 की धारा 3 के अनुसार, गर्भधारण के 20 सप्ताह के बाद गर्भपात कराना निषिद्ध है।
- यदि किसी पंजीकृत चिकित्सक द्वारा अदालत में यह साबित किया जाता है कि, गर्भपात नहीं करने की स्थिति में माँ की जान को खतरा हो सकता है, तब कानून के तहत इसके लिए छूट दी गयी है।
पिछले वर्ष, मार्च 2020 में ‘मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (संशोधन) विधेयक’ (Medical Termination of Pregnancy (MTP) Amendment Bill), 2020 लोकसभा में पारित कर दिया गया था, तथा इस पर राज्यसभा में चर्चा अभी शेष है।
इस विधेयक में, विशेष परिस्थितयों में गर्भपात की अनुमति के लिए निर्धारित 20 सप्ताह की ऊपरी सीमा को बढाकर 24 सप्ताह किये जाने का प्रस्ताव किया गया है।
गर्भपात बनाम मौलिक अधिकार:
प्रजनन संबंधी चुनाव अथवा विकल्प का अधिकार, गर्भधारण करने तथा इसे पूर्ण अवधि तक रखने अथवा गर्भपात कराने में महिला की मर्जी अथवा चुनाव का अधिकार है। यह स्वतंत्रता, संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा मान्यता प्राप्त निजता, गरिमा, निजी स्वायत्तता, शारीरिक संपूर्णता, आत्मनिर्णय और स्वास्थ्य के अधिकार का मूल तत्व है।
प्रीलिम्स लिंक:
- नए विधेयक तथा 1971 के अधिनियम की तुलना
- भारत तथा अन्य देशों में गर्भपात हेतु निर्धारित समय सीमा
- गर्भनिरोधक-विफलता अनुच्छेद
- मेडिकल बोर्ड का गठन और संरचना
मेंस लिंक:
मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (संशोधन) विधेयक, 2020 भारत में महिलाओं को प्रजनन अधिकार प्रदान करने का प्रयास करता है, चर्चा कीजिए।
स्रोत: द हिंदू
सामान्य अध्ययन- II
विषय: भारतीय संविधान- ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना।
राज्य निर्वाचन आयुक्त
(State Election Commissioners)
संदर्भ:
हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने कहा है, कि ‘राज्य निर्वाचन आयुक्त’ के पद पर नौकरशाहों को नहीं बल्कि किसी स्वतंत्र व्यक्ति को नियुक्त किया जाना चाहिए।
संबंधित प्रकरण:
कुछ दिन पहले, बॉम्बे उच्च न्यायालय के एक आदेश से गोवा राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा स्थानीय निकाय चुनाव से संबंधित जारी की गई कुछ अधिसूचनाओं पर रोक लगा दी थी, जिसके विरुद्ध गोवा सरकार ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की थी।
- उच्चतम न्यायालय ने, नगरपालिका आरक्षण के संबंध में उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा और राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह अगले 10 दिनों के भीतर मोरमुगाओ, मडगांव, मापुसा, कुपेम (Quepem) और संगुएम नगरपालिकाओं के लिए आरक्षण अधिसूचित करे।
- अदालत ने, राज्य निर्वाचन आयोग को 30 अप्रैल तक चुनाव प्रक्रिया पूरी करने का भी निर्देश दिया।
‘राज्य निर्वाचन आयुक्तों’ की स्वतंत्रता पर सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियां / निर्णय:
- केंद्र अथवा राज्य सरकार के अधीन कार्यरत या उससे संबंधित कोई व्यक्ति राज्य चुनाव आयुक्त के रूप में कार्य नहीं कर सकता। इस पद पर स्वतंत्र व्यक्तियों को नियुक्त किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए आवश्यक है, क्योंकि, सरकारी कर्मचारियों को राज्य चुनाव आयुक्तों का अतिरिक्त प्रभार देना ‘संविधान का मखौल’ है।
- राज्यों के लिए पूरे देश में से किसी भी स्वतंत्र व्यक्तिय को चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त करना चाहिए।
आवश्यकता:
- अदालत ने कहा कि सरकारी कर्मचारियों को राज्य निर्वाचन आयोगों में अतिरिक्त कर्मचारी के रूप में देखना दुखद है।
- इसके अलावा, संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत, राज्य का यह कर्तव्य है कि वह राज्य निर्वाचन आयोग के कामकाज में हस्तक्षेप न करे।
‘राज्य निर्वाचन आयोग’ के बारे में:
भारत के संविधान में राज्य निर्वाचन आयोग का उल्लेख किया गया है, जिसमें अनुच्छेद 243K, तथा 243ZA के अंतर्गत राज्य निर्वाचन आयुक्त, पंचायतों और नगर पालिकाओं हेतु सभी चुनावों का संचालन, निर्वाचन संबंधी दिशा-निर्देश, तथा मतदाता सूची तैयार करने संबंधी प्रावधान किये गए है।
- राज्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 243 के अनुसार, राज्यपाल, राज्य निर्वाचन आयुक्त (SEC) द्वारा अनुरोध किए जाने पर राज्य निर्वाचन आयोग के लिए अन्य कर्मचारियों को उपलब्ध कराता है।
- संविधान के तहत, स्थानीय स्व-शासी निकायों की स्थापना करना राज्यों की जिम्मेदारी है (सातवीं अनुसूची, प्रविष्टि 5, सूची II)।
राज्य निर्वाचन आयुक्त की शक्तियाँ तथा इसकी पद-मुक्ति:
राज्य निर्वाचन आयुक्त के लिए ‘उच्च न्यायालय के न्यायाधीश’ के समान दर्जा, वेतन और भत्ता प्राप्त होता है तथा इसे ‘उच्च न्यायालय के न्यायाधीश’ को पद-मुक्त करने हेतु प्रक्रिया के समान आधारों पर ही पद से हटाया जा सकता है, अन्य किसी आधार पर राज्य निर्वाचन आयुक्त को पद-मुक्त नहीं किया जा सकता।
भारतीय निर्वाचन आयोग तथा राज्य निर्वाचन आयोग की शक्तियां:
- राज्य निर्वाचन आयोग (SEC) के गठन से संबंधित अनुच्छेद 243K के प्रावधान, भारतीय निर्वाचन आयोग (Election Commission of India) से संबंधित अनुच्छेद 324 के समान हैं। दूसरे शब्दों में, ‘राज्य निर्वाचन आयोग’ को ‘भारतीय निर्वाचन आयोग’ (ECI) के समान दर्जा प्राप्त होता है।
- ‘किशन सिंह तोमर बनाम अहमदाबाद शहर नगर निगम’ मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था, कि राज्य सरकारें, जिस प्रकार संसदीय निर्वाचन तथा विधानसभा चुनावों के दौरान भारतीय निर्वाचन आयोग (ECI) के निर्देशों का पालन करती हैं, उसी तरह, राज्य सरकारों को पंचायत और नगरपालिका चुनावों के दौरान राज्य निर्वाचन आयोग (SEC) के आदेशों का पालन करना चाहिए।
व्यावहारिक रूप से, क्या ‘राज्य निर्वाचन आयोग’, ‘भारतीय निर्वाचन आयोग’ की भांति स्वतंत्र होता हैं?
हालांकि, राज्य निर्वाचन आयुक्तों को नियुक्ति राज्य के राज्यपाल द्वारा की जाती है, तथा इन्हें केवल महाभियोग द्वारा पद से हटाया जा सकता है, फिर भी, पिछले दो दशकों के दौरान कई राज्य निर्वाचन आयुक्तों को अपनी स्वतंत्रता पर दृढ़ रहने के लिए संघर्ष करना पड़ा है।
इस संबंध में शक्तियों के टकराव का एक महत्वपूर्ण मामला वर्ष 2008 में महाराष्ट्र में देखा गया था। मार्च 2008 में तत्कालीन राज्य चुनाव आयुक्त नंद लाल को, विधानसभा द्वारा क्षेत्राधिकार तथा शक्तियों के कथित उल्लंघन में विशेषाधिकार हनन का दोषी पाए जाने के बाद, गिरफ्तार कर दो दिनों के लिए जेल भेज दिया गया था।
प्रीलिम्स लिंक:
- विशेषाधिकार हनन- इस संबंध में प्रयोग, निहितार्थ और प्रावधान।
- भारतीय संविधान के तहत विभिन्न संस्थाओं के लिए महाभियोग प्रक्रिया की प्रयोज्यता।
- अनुच्छेद 243 अनुच्छेद 324
- चुनाव आयोग के फैसलों के खिलाफ अपील
- संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनाव तथा स्थानीय निकायों की चुनाव प्रक्रिया
- भारतीय निर्वाचन आयोग तथा राज्य चुनाव आयोग की शक्तियों के बीच अंतर
मेंस लिंक:
क्या भारत में राज्य चुनाव आयोग, भारतीय निर्वाचन आयोग की भांति स्वतंत्र हैं? चर्चा कीजिए।
स्रोत: द हिंदू
विषय: शासन व्यवस्था, पारदर्शिता और जवाबदेही के महत्त्वपूर्ण पक्ष, ई-गवर्नेंस- अनुप्रयोग, मॉडल, सफलताएँ, सीमाएँ और संभावनाएँ; नागरिक चार्टर, पारदर्शिता एवं जवाबदेही और संस्थागत तथा अन्य उपाय।
राजस्थान सूचना आयोग द्वारा पांच अधिकारियों को दंड
संदर्भ:
राजस्थान राज्य सूचना आयोग द्वारा सूचना के अधिकार (RTI) अधिनियम के तहत सूचना देने में लापरवाही दिखाने वाले सरकारी अधिकारियों के खिलाफ सख्त रुख अपनाया गया है।
आयोग ने विभिन्न विभागों के पांच अधिकारियों (सचिव, ग्राम विकास अधिकारी और ग्राम सचिवों) पर जुर्माना लगाया है और उनके आचरण के बारे में प्रतिकूल टिप्पणी भी की है।
संबंधित प्रकरण:
अधिकारियों द्वारा आवेदकों को जानकारी नहीं दिए जाने पर आयोग ने इन पर जुर्माना लगाया गया है। इसके अलावा, इन अधिकारियों द्वारा आयोग के नोटिस का जवाब भी नहीं दिया गया था।
आरटीआई अधिनियम के बारे में:
सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई अधिनियम), 2005 नागरिकों के ‘सूचना के अधिकार’ संबंधी नियमों और प्रक्रियाओं को निर्धारित करता है।
- सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 द्वारा पूर्ववर्ती ‘सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम’ (Freedom of Information Act), 2002 को प्रतिस्थापित किया गया है।
- यह अधिनियम, भारतीय संविधान में प्रदत्त मूल अधिकार ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को सशक्त करने हेतु अधिनियमित किया गया था। चूंकि, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के अंतर्गत ‘वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के अधिकार में ‘सूचना का अधिकार’ निहित है, अतः यह एक अंतर्निहित मौलिक अधिकार है।
मुख्य प्रावधान:
- आरटीआई अधिनियम की धारा 4 के तहत प्रत्येक सार्वजनिक प्राधिकरण द्वारा सूचना के स्वतः प्रकाशन का प्रावधान किया गया है।
- धारा 8 (1) में आरटीआई अधिनियम के तहत सूचना प्रदान करने संबंधी छूट का उल्लेख किया गया है।
- धारा 8 (2) के अंतर्गत सार्वजनिक हित में महत्वपूर्ण होने पर ‘सरकारी गोपनीयता अधिनियम’ (Official Secrets Act), 1923 के तहत छूट प्राप्त जानकारी के प्रकाशन हेतु प्रावधान किया गया है।
सूचना आयुक्त एवं लोक सूचना अधिकारी (PIO):
- अधिनियम में केंद्रीय और राज्य स्तर पर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है।
- सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वरा अपने कुछ अधिकारियों को ‘लोक सूचना अधिकारी’ (Public Information Officer– PIO) के रूप में नियुक्त किया जाता है। ये अधिकारी, आरटीआई अधिनियम के तहत जानकारी मागने वाले व्यक्ति को जानकारी देने के लिए उत्तरदायी होते हैं।
समय सीमा:
सामान्य तौर पर, लोक प्राधिकारी द्वारा आवेदन प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर किसी आवेदक को सूचना प्रदान करना अनिवार्य होता है।
- यदि माँगी जाने वाली सूचना, किसी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता से संबंधित होती है, तो उसे 48 घंटों के भीतर प्रदान किया जायेगा।
- यदि आवेदन को सहायक लोक सूचना अधिकारी के माध्यम से भेजा जाता है अथवा गलत लोक प्राधिकारी को भेजा जाता है, तो सूचना प्रदान करने हेतु निर्धारित तीस दिनों या 48 घंटों की अवधि में, जैसा भी मामला हो, पांच दिन का अतिरिक्त समय जोड़ा जाएगा ।
‘सूचना के अधिकार अधिनियम’ की प्रयोज्यता:
निजी निकाय (Private bodies):
- निजी निकाय, प्रत्यक्षतः ‘सूचना के अधिकार अधिनियम’ के दायरे में नहीं आते हैं।
- सरबजीत रॉय बनाम दिल्ली इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी कमीशन के एक फैसले में, केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा अभिपुष्टि की गयी कि, निजीकृत लोकोपयोगी कंपनियां (Privatised Public Utility Companies) आरटीआई के दायरे में आती हैं।
राजनीतिक दल:
केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) के अनुसार, राजनीतिक दल ‘सार्वजनिक प्राधिकरण’ (Public Authorities) हैं तथा आरटीआई अधिनियम के तहत नागरिकों के प्रति जवाबदेह हैं।
- किंतु, अगस्त 2013 में सरकार द्वारा ‘सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक पेश किया गया, जिसमे राजनीतिक दलों को अधिनियम के दायरे से बाहर करने का प्रावधान किया गया है।
- वर्तमान में कोई भी राजनीतिक दल आरटीआई कानून के अंतर्गत नहीं है, हालांकि और सभी राजनीतिक दलों को आरटीआई अधिनियम के तहत लाने के लिए एक मामला दायर किया गया है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश:
13 नवंबर 2019 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश पद को सूचना के अधिकार (RTI) अधिनियम के दायरे में लाने संबंधी दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा गया।
प्रीलिम्स लिंक:
- अधिनियम के तहत लोक प्राधिकरण की परिभाषा
- अधिनियम के तहत अपवाद
- मुख्य सूचना आयुक्त के बारे में
- राज्य सूचना आयुक्त
- सार्वजनिक सूचना अधिकारी
- नवीनतम संशोधन
मेंस लिंक:
आरटीआई अधिनियम, 2005 के महत्व पर चर्चा करें।
स्रोत: द हिंदू
विषय: सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय।
उपासना स्थल अधिनियम
(Places of Worship Act)
संदर्भ:
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से वर्ष 1991 में लागू किए गए उपासना स्थल अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिका पर जवाब देने को कहा है। इस अधिनियम में धार्मिक स्थलों को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में स्थिर रखने का प्रावधान किया गया है।
संबंधित प्रकरण:
अदालत में इस उपासना स्थल अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिका दाखिल की गयी है, जिसमे इस क़ानून को ‘मनमाना, तर्कहीन और पूर्वप्रभावी’ बताया गया है।
- इस कानून के अनुसार, ‘15 अगस्त, 1947’ एक सीमा-तिथि’ / कट-ऑफ डेट के रूप में नीर्धारित की गयी है, तथा यह क़ानून हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और सिखों को उनके पूजा-स्थलों, जिन पर ‘कट्टरपंथी बर्बर आक्रमणकारियों द्वारा हमला किया गया और कब्ज़ा कर लिया गया था, पर ‘फिर से दावा’ करने से रोकता है।
- याचिकाकर्ता का कहना है कि, कानूनी दावों से संबंधित, अधिनियम के प्रावधान, धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के खिलाफ हैं।
अधिनियम का उद्देश्य:
- इस अधिनियम का उद्देश्य, किसी उपासना स्थल के धार्मिक स्वरूप को, उसकी 15 अगस्त 1947 को विद्यमान स्थिति में स्थिर रखना है।
- अधिनियम में, उपासना स्थल के उक्त तिथि को विद्यमान धार्मिक स्वरूप के रखरखाव का भी प्रावधान किया गया है।
- इसका उद्देश्य किसी भी समूह द्वारा उपासना स्थल की पूर्व स्थिति के बारे में, तथा उस संरचना अथवा भूमि पर नए दावे करने से रोकने हेतु पहले से उपाय करना था।
- इस क़ानून से दीर्घकालीन सांप्रदायिक सद्भाव के संरक्षण में मदद करने की अपेक्षा की गयी थी।
प्रमुख बिंदु:
- अधिनियम में यह घोषणा की गयी है, कि किसी भी उपासना स्थल का धार्मिक स्वरूप वैसा ही रहेगा जैसा 15 अगस्त 1947 को था।
- इसमें कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी धार्मिक संप्रदाय के उपासना स्थल को अलग संप्रदाय या वर्ग में नहीं बदलेगा।
- इस क़ानून के अनुसार, 15 अगस्त 1947 को विद्यमान किसी उपासना स्थल के धार्मिक स्वरूप के संपरिवर्तन के संदर्भ में किसी न्यायालय, अधिकरण या अन्य प्राधिकारी के समक्ष लंबित कोई वाद, अपील या अन्य कार्यवाही इस अधिनियम के प्रारंभ पर उपशमित हो जाएगी और इसं पर आगे कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती है।
अपवाद:
ये प्रावधान निम्नलिखित संदर्भों में लागू नहीं होंगे:
- उक्त उपधाराओं में निर्दिष्ट कोई उपासना स्थल, जो प्राचीन संस्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 के अन्तर्गत आने वाला कोई प्राचीन और ऐतिहासिक संस्मारक या कोई पुरातत्वीय स्थल या अवशेष है।
- इस अधिनियम के प्रारंभ के पूर्व किसी न्यायालय, अधिकरण या अन्य प्राधिकारी द्वारा, उपरोक्त मामलों से संबंधित कोई वाद, अपील या अन्य कार्यवाही, जिसका अंतिम रूप से विनिश्चय, परिनिर्धारण या निपटारा कर दिया गया है।
- इस अधिनियम की कोई बात उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या में स्थित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के रूप में सामन्यतः ज्ञात स्थान या उपासना स्थल से संबंधित किसी वाद, अपील या अन्य कार्यवाही पर लागू नहीं होगी। इस अधिनियम के उपबंध, किसी अन्य लागू क़ानून के ऊपर प्रभावी होंगे ।
स्रोत: द हिंदू
सामान्य अध्ययन- III
विषय: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन।
ईंधन आउटलेट पर बेंजीन उत्सर्जन में कमी लाएं: समिति
संदर्भ:
केरल में वायु प्रदूषण का अध्ययन करने हेतु, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (NGT) द्वारा नियुक्त एक संयुक्त समिति द्वारा निम्नलिखित सिफारिशें की गई हैं:
- ईंधन स्टेशनों पर ‘वेपर रिकवरी सिस्टम’ लगाएं जाएँ।
- डीजल चालित वाहनों में पार्टिकुलेट फिल्टर की रेट्रोफिटिंग।
- उत्सर्जन मानकों का पालन नहीं करने वाली औद्योगिक इकाइयों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई।
- बैटरी चालित वाहनों को बढ़ावा देना और डीजल चालित पुराने वाहनों को चरणबद्ध तरीके से प्रतिबंधित करना।
- यातायात गलियारों के साथ हरित पट्टी का निर्माण करना।
अल्पकालिक उपायों की अनुशंसा:
- प्रदूषण फैलाते हुए स्पष्ट दिखाई देने वाले वाहनों (मोटर वाहन विभाग द्वारा शुरू की जाने वाली) के खिलाफ सख्त कार्रवाई।
- सड़कों के गीले / यंत्रीकृत वैक्यूम स्वीपिंग को शुरू करना।
- विनिर्माण स्थलों पर धूल प्रदूषण को नियंत्रित करना।
- विनिर्माण सामग्री का परिवहन, ढके हुए वाहनों द्वारा सुनिश्चित करना।
आवश्यकता:
पेट्रोल ईंधन भरने वाले स्टेशन बेंजीन उत्सर्जन, वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों और 2.5 पार्टिकुलेट मैटर का एक प्रमुख स्रोत होते हैं। इसलिए, वायु गुणवत्ता में सुधार हेतु ‘वेपर रिकवरी सिस्टम’ लगाया जाना एक महत्वपूर्ण कदम है। समिति की सिफारिशों के अनुसार, इसे शीघ्र ही पेट्रोलियम और विस्फोटक सुरक्षा संगठन (Petroleum and Explosives Safety Organization–PESO) के समन्वय से लगाया जाए।
बेंजीन के स्रोत:
- ऑटोमोबाइल और पेट्रोलियम उद्योग।
- कोयला तेल, पेट्रोल और लकड़ी का अधूरा दहन।
- सिगरेट के धुएँ और चारकोल ईधन से भोजन पकाते समय उत्सर्जित होता है।
- इसके अलावा, यह पार्टिकलबोर्ड फर्नीचर, प्लाईवुड, फाइबरग्लास, फर्श चिपकाने वाले उत्पाद, पेंट्स, वुड पैनलिंग में भी मौजूद होता है।
प्रीलिम्स लिंक:
- राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (NGT) के बारे में
- NGT की संरचना और कार्य
- बेंजीन- स्रोत (यूपीएससी प्री में पूछा गया)
- मानव स्वास्थ्य पर बेंजीन के प्रभाव
मेंस लिंक:
मानव स्वास्थ्य पर बेंजीन प्रदूषण के प्रभाव पर चर्चा कीजिए।
स्रोत: द हिंदू
विषय: सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा चुनौतियाँ एवं उनका प्रबंधन- संगठित अपराध और आतंकवाद के बीच संबंध।
म्यांमार से आने वाले प्रवासियों पर रोक: केंद्र
संदर्भ:
हाल ही में, गृह मंत्रालय (MHA) द्वारा नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सचिवों को ‘भारत में म्यांमार से आने वाले अवैध प्रवासियों पर रोक लगाने हेतु कानून के अनुसार उचित कार्रवाई’ करने को कहा गया है।
पृष्ठभूमि:
पड़ोसी देश म्यांमार में हुए हालिया सैन्य तख्तापलट तथा इसके परिणामस्वरूप हुई कड़ी कार्रवाइयों के कारण कई लोगों द्वारा भारत में अवैध रूप से प्रवेश किया जा रहा है।
केंद्र सरकार का व्यक्तव्य:
राज्य सरकारों के पास किसी भी ‘विदेशी को शरणार्थी का दर्जा’ देने संबंधी शक्तियां नहीं हैं तथा भारत, 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी अभिसमय और उसके 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षरकर्ता नहीं है।
- ‘तात्मादाव’ अर्थात म्यांमार की सेना द्वारा 1 फरवरी को तख्तापलट के बाद देश पर अधिकार कर लिया गया था।
- भारत और म्यांमार के मध्य 1,643 किलोमीटर लंबी सीमा है और दोनों ओर के लोगों के मध्य पारिवारिक संबंध हैं।
‘शरणार्थी अभिसमय’ 1951 के बारे में:
- यह संयुक्त राष्ट्र संघ की एक बहुपक्षीय संधि है, जिसमे ‘शरणार्थी’ को परिभाषित किया गया है, तथा शरण दिए जाने वाले व्यक्तियों के अधिकारों और शरण देने वाले राष्ट्रों की जिम्मेदारी को निर्धारित किया गया है।
- इस अभिसमय में जाति, धर्म, राष्ट्रीयता, किसी विशेष सामाजिक समूह से संबद्धता, या राजनीतिक विचारधारा के कारण होने वाले उत्पीड़न से पलायन करने वाले लोगों को कुछ अधिकार प्रदान किये गए है।
- भारत इस अभिसमय का सदस्य नहीं है
- इस अभिसमय में यह भी निर्धारित किया गया है, कि किन लोगों को शरणार्थी के रूप में घोषित नहीं किया जा सकता है? जैसे कि किसी युद्ध अपराधी को शरणार्थी का दर्जा नहीं दिया जा सकता है।
- इसमें, अभिसमय के अंतर्गत जारी किए गए यात्रा दस्तावेजों के धारकों के लिए वीज़ा-मुक्त यात्रा का भी प्रावधान किया गया है।
- इस अभिसमय, वर्ष 1948 के मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 14 पर आधारित है। इसमें उत्पीड़न से बचने के लिए अन्य देशों में शरण लेने के लिए व्यक्तियों के अधिकार को मान्यता प्रदान की गई है। शरणार्थी, अभिसमय द्वारा प्रदान किए गए अधिकारों के आलावा, संबंधित देश में प्रचलित अधिकार और लाभ प्राप्त करने का अधिकार होगा।
- 1967 के प्रोटोकॉल में सभी देशों के शरणार्थियों को शामिल किया गया था, जबकि 1951 के अभिसमय में केवल यूरोप के शरणार्थी शामिल किये गए थे।
प्रीलिम्स लिंक:
- भारत-म्यांमार सीमा के बारे में
- सीमावर्ती राज्य
- प्रमुख बंदरगाह और नदियाँ
- संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी अभिसमय के बारे में
मेंस लिंक:
1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी अभिसमय के महत्व पर चर्चा कीजिए।
स्रोत: द हिंद
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(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)
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