"यहां की टेक्स्टाइल इंडस्ट्री पर सरकार की ग़लत नीतियों की काफ़ी ज़्यादा मार पड़ी है। जमीनी हकीकत ये है कि पिछले दो साल में कोरोना लॉकडाउन ने लोगों को काफ़ी परेशान किया है।"
कानपुर
चुनावी राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से करीब 80 किलोमीटर दूर गंगा के किनारे स्थित कानपुर टेक्सटाइल समेत अन्य उद्योगों के लिए मशहूर है। यहां मतदान तीसरे चरण में 20 तारीख को संपन्न होगा। लेकिन इस चुनावी समर में यहां खस्ताहाल हुए उद्योगों पर चर्चा न के बराबर है। व्यापारी, मिल मालिक तथा कामगार वर्ग मौजूदा समय में संकट से गुजर रहे हैं। इन्हीं मुद्दों पर चर्चा करने के लिए हमने कानपुर के सामाजिक कार्यकर्ता अनिल सिंह से बात की।
टेक्सटाइल इंडस्ट्री के बारे में पूछे जाने पर सिंह ने न्यूजक्लिक से बातचीत में कहा कि "यहां की टेक्स्टाइल इंडस्ट्री पर सरकार की गलत पॉलिसी की काफी ज्यादा मार पड़ी है। जमीनी हकीकत ये है कि पिछले दो साल में कोरोना लॉकडाउन ने लोगों को काफी परेशान किया है। इसका असर मध्यम वर्ग के लोगों और छोटे तबके के सप्लायरों आदि जैसे लोगों पर पड़ा है। इस इंडस्ट्री से जुड़े अप्रत्यक्ष लोगों पर भी इसका बुरा असर पड़ा है। इस तरह देखा जाए तो कानपुर में करीब पचास हजार से ज्यादा लोग बेरोजगार हुए हैं। कानपुर की टेक्सटाइल इंडस्ट्री एक समय में काफी समृद्ध थी। यहां से देश-विदेश तमाम जगह सूती कपड़े, ऊनी कपड़े और कंबल आदि सप्लाई होती थीं लेकिन यह उद्योग बिल्कुल ठप हो गया है। इसमें काम करने वाले लोग बड़ी संख्या में बेरोजगार हो गए।"
उन्होंने कहा कि "कुछ मिल मालिकों ने अपने-अपने शो-रूम खोल रखे थें। इसमें लोगों को डिस्काउंट रेट पर कपड़ा उपलब्ध हो जाता था। एक-एक शोरूम में बड़ी संख्या में लोग काम पर लगे हुए थे। धीरे-धीरे ये सब चौपट हो गया। उनकी स्थिति काफी खराब हो गई। कारोबार ठप होने के चलते इन मालिकों को अपने कर्मियों की छटनी करनी पड़ी है। इससे बेरोजगारी काफी बढ़ी है और इन शोरूम में अभी जो कर्मचारी और श्रमिक काम कर रहे हैं उन लोगों को आधे वेतन पर काम करना पड़ रहा है।"
इस इंडस्ट्री की मौजूदा स्थिति को लेकर अनिल सिंह ने आगे कहा, "सरकार ने यहां के इस उद्योग की अनदेखी की है। पूर्ववर्ती कांग्रेस समेत अन्य सरकारों ने कभी भी कपड़े पर टैक्स नहीं लगाया था। हां कपड़े के मैन्यूफेक्चरिंग आइटम पर टैक्स लगा था लेकिन इस पर नहीं लगा था। लेकिन इस सरकार ने कपड़े पर भी टैक्स लगा दिया जिससे इंडस्ट्री की स्थिति चरमरा गई। दूसरी तरफ जब आम आदमी के जेब में पैसा नहीं होगा तो वे सबसे पहले अपनी बेहद बुनियादी जरूरतों जैसे खान-पान और स्वास्थ्य पर खर्च करेंगे। इससे जब पैसा बचेगा तभी वे कपड़े पर पैसा खर्च करेंगे। अब लोगों के पास पैसा नहीं है इसलिए वे अब कपड़े पर कम खर्च कर रहे हैं जिससे कारोबार की हालत बदतर होती गई है।"
उन्होंने कहा कि "लोगों की क्रय शक्ति ही समाप्त हो गई है। सड़कों पर भीड़ जरूर है लेकिन लोग खरीदारी नहीं कर पा रहे हैं। दुकानदार परेशान हैं। उनके यहां ग्राहक नहीं पहुंचते हैं। इन दुकानदारों ने इस उम्मीद पर बैंक और दूसरे निजी साहूकारों से कर्ज लेकर काम बढ़ाया कि त्योहार और शादी-विवाह के मौसम में काम होने पर कर्ज लौटा दिया जाएगा। लेकिन इन दुकानदारों के साथ पूरा उलटा हो गया। एक तरफ तो व्यापार नहीं चला वहीं दूसरी तरफ लोन की किस्त नहीं दे पाने के चलते कर्ज का बोझ बढ़ता गया जिससे ये दुकानदार परेशान हो गए हैं। अब उनके सामने इस कर्ज को चुकाने के लिए पैसे नहीं है। उनके द्वारा लिए गए पैसे पर ब्याज पर ब्याज लग रहा है। इस तरह वे बुरी तरह फंस गए हैं। कई जगह आत्महत्याएं की खबरें सामने आई हैं। व्यापार चौपट होने से व्यापारी वर्ग समेत इससे जुड़े तमाम लोग त्रस्त हो चुके हैं जो कि चिंता की बात है।"
लाल इमली समेत अन्य बड़े मिलों को लेकर हुई बातचीत में अनिल सिंह बताते हैं, "कानपुर में लाल इमली समेत करीब दस बारह बड़ी-बड़ी मिलें थी लेकिन ये सब सरकार की उदासीनता का शिकार हो गईं। सरकार ने इनकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। 1980 के दशक से देश के अन्य शहरों की टेक्सटाइल इंडस्ट्री का जितना विकास हुआ है उतना कानपुर की इस इंडस्ट्री का नहीं हो सका है। इसको लेकर सरकार की तरफ से जितना प्रोत्साहन मिलना चाहिए था वह नहीं मिल पाया है। लाल इमली कंबल और ऊनी कपड़ों के लिए काफी मशहूर था। यहां का कंबल देश-विदेश में सप्लाई होता था। इतना ही नहीं दुनियाभर के देशों की सेना में यहीं का कंबल सप्लाई होता था। ये उद्योग सरकार की गलत नीति का शिकार हो गई और कंबल बाहर से आयात होने लगा जिससे ये मिल चौपट हो गई। दूसरी तरफ देखें तो लुधियाना की तरफ गर्म कपड़ों का उद्योग शुरू हुआ जिसका मुकाबला लाल इमली जैसी मिल नहीं कर पाई। इंदिरा गांधी के शासन काल में इस मिल का अधिग्रहण किया गया था। सरकार की तरफ से सहायता भी मिली थी लेकिन आगे यह नहीं चल पाई।"
सिंह आगे कहते हैं, "कानपुर में सूती कपड़ों की बड़ी मिलें तो बंद हो गई थीं लेकिन पनकी नगर जैसे औद्योगिक इलाकों में सूती कपड़े का उद्योग एक बार फिर पनपने लगा था। इन मिलों में हजारों की संख्या में लोग काम करते थें। मिल मालिकों ने बैंक और इधर-उधर से कर्ज लेकर काम को आगे बढ़ाया था लेकिन लॉकडाउन ने एक बार फिर इस क्षेत्र को तबाह कर दिया। इन छोटे मिलों में काम करने वाले बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हो गए। मिल मालिकों को घाटे का सामना करना पड़ा और उनको कर्मचारियों की छटनी करनी पड़ी। एक बार फिर से कुछ मिलें बंद हो गई और कुछ बंद होने की कगार पर है। फिलहाल इन मिलों की अच्छी स्थिति नहीं है।"
सरकार और प्रशासन की ओर से क्षेत्रीय विकास के मुद्दे पर वह कहते हैं,
"दूसरे ये कि पनकी नगर जैसे औद्योगिक इलाकों में काम खराब होने की एक वजह
ये भी है कि इन क्षेत्रों की सड़कें, नालियां आदि तमाम की तमाम चीजें जरजर
हालत में हैं। इन सब चीजों को कोई देखने वाला नहीं है। इन चीजों पर न तो इस
इलाके की विधायक की नजर है और न ही सरकार और प्रशासन की। व्यापार मंडल के
नगर निगम और डीएम को ज्ञापन देते हैं। उनको आश्वासन दिया जाता है लेकिन
इसको कोई देखने वाला नहीं है। यह जस का तस बनी हुई है।"
उन्होंने कहा कि "यहां ट्रैफिक जाम की बहुत बड़ी समस्या है। किसी भी
व्यापार को पनपने के लिए सबसे जरूरी चीज यातायात व्यवस्था का दुरुस्त होना
है लेकिन यहां ये व्यवस्था पूरी तरह चौपट है। पहले देश के अन्य हिस्सों के
व्यापारी यहां आते थें लेकिन अब कोई नहीं आना चाहता है जिससे यहां का
व्यापार समाप्त होने के कगार पर है।"
सिंह बातचीत में कानपुर टेंट उद्योग को लेकर कहते हैं कि "ये शहर इस उद्योग का भी केंद्र है। पंडाल और शामियाना के कपड़े यहां से पूरे उत्तर भारत में जाते हैं। कोरोना को लेकर हुए लॉकडाउन से इसकी मांग घट गई है। एक तरह से कहा जाए तो इसकी मांग पूरी तरह समाप्त हो गई है क्योंकि इन दो वर्षों में शादी-विवाह और सामुदायिक कार्यक्रम पूरी तरह बंद हो गए हैं। इसको लेकर टेंट चलाने वाले लोगों ने इन कपड़ों की खरीदारी बंद कर दी जिससे इस उद्योग में लगे लोगों को संकट से गुजरना पड़ रहा है। इस उद्योग से लाखों लोग जुड़े हुए थें। ऐसे में प्रतिबंध लगने के बाद से इनके परिवारों के सामने आजीविका की समस्या खड़ी हो गई और उन्हें दूसरा अन्य काम करके अपना और अपने परिवार का जीवन चलाना पड़ रहा है। बेरोजगारी बढ़ने से लोगों को कोई काम नहीं मिल रहा था जिससे उन लोगों ने कर्ज लेकर कई प्रकार का काम किया।"
वे आगे कहते हैं "एक जमाने में फ्लेक्स कंपनी हुआ करती थी जो मिलिट्री को जूता सप्लाई करती थी। बाद में मिलिट्री को इस जूते की सप्लाई बंद करा दी गई। इस कंपनी को ऑर्डर मिलना बंद हो गया। इसलिए इसका काम धीरे धीरे बंद हो गया जिससे ये कंपनी ही बंद हो गई।"
एक अन्य स्थानीय नेता अशोक तिवारी कानपुर के व्यापार को लेकर चर्चा करते हुए कहते हैं "छोटा व्यापारी वर्ग बहुत ज्यादा परेशान है। पहले नोटबंदी ने इनकी कमर तोड़ दी और रही सही कसर जीएसटी ने पूरा कर दिया। कुल मिलाकर देखें तो ये वर्ग बुरी तरह से संकट का सामना कर रहा है। ये लोग कर्ज के बोझ में दबे हुए हैं। बैंक के लोन के अलावा इन लोगों पर स्थानीय साहूकारों का भी लोन है। व्यापार सही से न चलने के चलते इन पर चौतरफा संकट पैदा हो गया है। एक तरफ कर्ज का बोझ दूसरी तरफ परिवार चलाने की समस्या है।"
तिवारी आगे कहते हैं "असंगठित क्षेत्र में मजदूरों की स्थिति बेहद दयनीय है। उनसे 12-14 घंटे काम लिया जाता है। इनको न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जाता है। साथ ही उनको समय पर वेतन भी नहीं मिलता है। बेरोजगारी अपने चरम पर है। रोजगार उपलब्ध न होने के कारण लोगों में बहुत ज्यादा निराशा और नाराजगी है। सरकार रोजगार के लिए कुछ नहीं कर पा रही है।"
अशोक तिवारी भी कानपुर शहर में सड़कों की समस्या को लेकर अनिल सिंह की बातों को पुष्ट करते हुए कहते हैं, "शहर में सबसे बड़ी दिक्कत सड़कों की है। यहां तो वीआईपी रोड ठीक-ठाक है लेकिन आम लोगों के चलने वाली अन्य दूसरी सड़कें खस्ताहाल स्थिति में हैं। कानपुर को स्मार्ट सिटी बनाने का बीजेपी सरकार ने सपना दिखाया था, लेकिन यह कहीं भी दिख नहीं रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों की सड़कों का हालत तो और बदतर है। इन इलाकों में एक बार सड़क बन जाने के बाद जब तक पूरी न उखड़ जाए और बड़ा हंगामा न खड़ा हो जाए तब तक कोई ठीक कराने वाला नहीं होता है। सड़क निर्माण में जो मैटेरियल लगती है वह घटिया गुणवत्ता की होती है जिससे जल्द सड़कें टूटने लगती हैं।"
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