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दो साल में दो सरकारें, नहीं कर पाईं वादे पूरे, अब नए साल में फिर नई उम्मीदें

पिछला साल जब शुरू हो रहा था, तब भी नई सरकार थी और अब भी नई सरकार है। फर्क ये है कि तब कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी और इस बार शिवराज के नेतृत्व में भाजपा सरकार है और इन दोनों के कार्यकालों में अगर कोई फर्क बिल्कुल भी नहीं है तो वो है जबलपुर की स्थिति, जो पहले जैसी ही है अर्थात् न तो जबलपुर प्रदेश की उपराजधानी बन पाया, न ही महाकौशल अलग राज्य और जबलपुर उसकी राजधानी।

अगर हम प्रदेश के दूसरे हिस्सों को देखें तो भोपाल के साथ ही मालवा और मध्यभारत का विकास जबलपुर की तुलना में बेहतर तरीके से होता दिख जाएगा। वहाँ व्यापार बढ़ा, उद्योग बढ़े, सबसे बड़ी बात अधोसंरचनागत विकास भी ऐसा हुआ कि शहर महानगर और कस्बे नगर दिखने लगे, पर हमारे जबलपुर और विंध्य समाहित महाकौशल को राजधानी से जोड़ने वाला एक अदद शानदार राजमार्ग नसीब नहीं हो पाया, बाकी विकास की तो बात करना ही बेमानी होगा।

छत्तीसगढ़ के अलग होते वक्त छोटे राज्यों के हिमायती मान बैठे थे कि विंध्य समाहित महाकौशल भी एक अलग राज्य देर-सवेर बन ही जाएगा। इसके लिए बाकायदा इस क्षेत्र से आवाज भी उठी, पर इस आश्वासन के साथ दब गई कि नागपुर के समान उपराजधानी बनाकर जबलपुर में विधानसभा का एक सत्र लगाया जाएगा।

कांग्रेस सरकार ने तो इस दिशा में एक कैबिनेट बैठक और जबलपुर के विकास से जुड़ी घोषणायें करके मार्ग भी प्रशस्त किया, पर वो सरकार ही नहीं चल पाई और पुनः आई भाजपा सरकार की नजर में तो उपराजधानी का मुद्दा ही बेकार है और ऐसी स्थिति में जबलपुर वहीं रह गया जहाँ पिछली भाजपा सरकार इसे छोड़ गई थी।

अब प्रश्न ये उठता है कि जबलपुर को उपराजधानी बनाने की जरूरत क्यों है? जबलपुर से राजधानी की दूरी 3 सौ किलोमीटर से कुछ ज्यादा है और पिछले 3 दशकों में एक भी सड़क ऐसी नहीं बन पाई जिसे संस्कारधानी-राजधानी रोड कहा जा सके।

अब सोचिए प्रदेश की ऊर्जाधानी सिंगरौली की राजधानी से दूरी 718 किलोमीटर है और संस्कारधानी जबलपुर से 429 किलोमीटर। तो सिंगरौली, जिसे मध्य प्रदेश का सिंगापुर भी कहते हैं, वहाँ नजर रखना जबलपुर से आसान होगा या भोपाल से? पर यदि जबलपुर से वहाँ का प्रबंधन करना हो तो किस अधिकार से? जबलपुर न तो उपराजधानी है और न ही महाकौशल पृथक राज्य है।

ऐसी स्थिति में जबलपुर के साथ-साथ विंध्य समाहित महाकौशल के सुदूर के क्षेत्र लगातार उपेक्षित हुए जा रहे हैं, उनका बैकलॉग भी बढ़ रहा है। बालाघाट को ही देखिए, इसी पिछड़ेपन के कारण नक्सली गतिविधियों की आहट भी सुनाई देने लगी हैं। डिंडोरी हो या अनूपपुर, प्रशासनिक नक्शा बदलने से विकास की रफ्तार नहीं बढ़ पाई है, क्योंकि मॉनिटरिंग का नितांत अभाव है।

मंडला जिले को ही लें, आसपास के सबसे बड़े शहर जबलपुर के लिए एक चिकना-सपाट 100 किमी का रोड 30 सालों में नहीं बन पाया है। यही स्थिति दमोह की है जहाँ की भी 100 किमी की टोल सड़क पिछले 3 दशकों में कभी भी सलामत नहीं रही। जबलपुर के इर्द-गिर्द 100 किमी के दायरे में नरसिंहपुर भी आता है और इस सड़क पर चलना भी अभी बाधाओं से भरपूर है।

केवल कटनी सड़क को एनएचएआई ने हाल ही में सँवार दिया है, पर अभी से यह सड़क रखरखाव की माँग करने लगी है। ऐसा नहीं है कि शानदार सड़कें बन नहीं सकतीं, बरसों से सही सलामत अमरकंटक सड़क इसका शानदार उदाहरण है।

पर ये जर्जर सड़कें इस क्षेत्र में विकास की रफ्तार की कहानी खुद कह देती हैं और इनके पीछे जहाँ इस अंचल के कमजोर नेतृत्व को कमजोर ही रहने देने की साजिश है वहीं राजधानी भोपाल का दूर रहना भी अपने आप में बड़ा कारण है।

बरसों से पृथक महाकौशल राज्य की माँग को नजरअन्दाज कर इस क्षेत्र की प्राकृतिक सम्पदा को बटोरने का जो षड्यंत्र चल रहा है, उसे रोकने के लिए जबलपुर को कम से कम उपराजधानी तो बनाना ही चाहिए अन्यथा धीरे-धीरे यह असंतोष विस्फोट में तब्दील हो जाएगा, जो किसी के लिए हितकर साबित नहीं होगा।

हर नए साल पर हम चाहते हैं कि वो यादगार बन जाए, पर जब वो बीत जाता है तो हमें अपनी झोली खाली ही नजर आती है। जबलपुर में गुजरात के प्रसिद्ध साबरमती फ्रंट जैसा नर्मदा फ्रंट बनाने की घोषणा एक सरकार करती है, दूसरी भुला देती है। ग्वारीघाट पर एक पुल के स्वरूप में दोनों राजनीतिक पार्टियाँ एकमत नहीं हो पातीं।

फ्लाईओवर और शास्त्री ब्रिज लेकर तो मतभेद तक सार्वजनिक हो जाते हैं। ऐसे में कैसे हमारी झोली भर पाएगी? प्रश्न यह उठता है कि आखिर हम इंदौर के राजनीतिक परिवेश से क्यों नहीं सीखते, जहाँ शहरहित के मुद्दों पर सब अपने निजी विषय छोड़कर एकजुट हो जाते हैं।

इतना तय है कि अगर हम सर्वांगीण विकास और पर्याप्त महत्व पाने में सफल होना चाहते हैं तो हमें भी अपने मतभेदों को भूलकर एकजुटता को अपनाना ही पड़ेगा और इसकी शुरूआत बिना मुहूर्त आज से ही करनी पड़ेगी। (कमलनाथ सरकार दिसम्बर 2018 में बनी, विधिवत कामकाज जनवरी 2019 में आरंभ किया, भाजपा सरकार मार्च 2020 में आई।)

व्हीकल फैक्ट्री एरिया टेस्टिंग रेंज : ट्रकों की टेस्टिंग जहाँ होती है, वहाँ घुमावदार सड़कों के खाली एरिया में सोलर बिजली बनाना आरंभ किया गया। एक पंथ दो काज।



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मतभेद भुलाकर राजनैतिक दलों को दिखानी होगी एकजुटता


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