इस बार उपचुनावों के लिए प्रत्याशियों के चुनाव खर्च की सीमा 2 लाख 80 हजार रुपए बढ़ाई गई थी, लेकिन कोविड से बचाव के प्रबंधों पर इसी बजट में से पैसा खर्च करना था, इसलिए प्रत्याशी इस बढ़ी हुई सीमा का खुलकर लाभ नहीं ले सके। महंगी चुनावी सामग्री से प्रत्याशियों ने तौबा की और कम खर्च में प्रचार का नया तरीका निकाला। भाजपा, कांग्रेस, बसपा के किसी भी प्रत्याशी ने प्रचार रैली-सभा में पाइप वाले पंडाल नहीं लगवाए, क्योंकि 30 गुणा 100 फीट के वाटर प्रूफ पंडाल का मूल्य 70 हजार रुपए था, जिसकी बैठक क्षमता 500 से भी कम थी।
साउंड सर्विस, स्पीकर सेट कंप्लीट 1000 बैठक क्षमता का खर्च 6000 रुपए था। इस बार अलग-अलग विधानसभा में चुनाव खर्च अलग था, जहां ये बढ़ा हुआ था, वहां प्रत्याशी बड़े खर्च से बचते रहे, क्योंकि खर्च की सीमा 30 लाख 80 हजार से पार होने पर आयोग चुनाव रद्द भी कर सकता है। पहले के चुनावों में आयोग तय सीमा से ज्यादा खर्च पर चुनाव रद्द कर चुका है। ऐसे मामले तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश में पिछले उपचुनावों के दौरान सामने आ चुके हैं।
चाय 5 रुपए, खाने के 100 ग्राम के पैकेट की कीमत 30 रुपए तय थी, इसलिए इस खर्च से भी तौबा...
- ग्वालियर चंबल संभाग में सर्वाधिक 16 सीटों पर उप चुनाव हुए। इन सीटों पर 3 लेयर मास्क का खर्च जहां 10 रुपए था तो एन-95 का 30 रुपए। इसी तरह 500 एमएल सैनिटाइजर का खर्च 250 रुपए तक जुड़ा है।
- प्रत्याशियों ने फूलों के हार की जगह माला से काम चलाया, क्योंकि इसकी कीमत 10 रु. थी। आयोग ने हार की 100 रु. और गुलदस्ता की 500 रु. कीमत रखी थी।
- कंप्यूटर एचपी, लेजर, जेट, प्रिंटर 1000 एवं 2420 टोनर का खर्च 5400 रुपए था। जबकि कंप्यूटर, लेजर, जेट, प्रिंटर 1000 एवं 2420 टोनर रिफिलंग का खर्च 300 रुपए था। इस स्थिति में किफायती लेजर और प्रिंटर का इस्तेमाल किया।
- चाय की कीमत तो 5 रुपए थी, जबकि खाने के पैकेट 100 ग्राम का मूल्य 30 रुपए और 200 ग्राम का मूल्य 60 रुपए तय किया गया।
- सुरखी विधानसभा के लिए खर्च पैकेट के बजाए नग में था। इसमें समोसे की कीमत 5 रुपए, पोहा-जलेबी 12 रुपए प्रति प्लेट तो पुड़ी-सब्जी 25 रुपए प्रति पैकेट थी।
चुनाव परिणाम से पहले जांचे जाएंगे अकाउंट
चुनाव आयोग द्वारा नियुक्त किए गए एक्सपेंडिचर ऑब्जर्वर ने राजनीतिक दलों से 10 नवंबर मतगणना के पहले तीन बार अपने अकाउंट की जांच करवाने को कहा है। हालांकि दल अभी यह खर्चा देने से बच रहे हैं। इसकी वजह उन्हें चुनाव नतीजे के दिन के स्टेशनरी समेत काउंटिंग के लिए तैनात किए गए एजेंट के खान-पान का खर्च तथा विजयी होने पर जुलूस में शामिल होने वाली राजनीतिक दलों के झंडे लगीं गाड़ियों का खर्च भी वहन करना है। ये खर्च भी उन्हें आयोग को बताना होगा।
खर्च मिल-बैठकर तय करना था
चुनाव का खर्च राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि और जिला निर्वाचन अधिकारी के साथ बैठकर तय करना था। यदि कहीं कोई कीमत ज्यादा थी, तो उसे भी आपसी चर्चा से कम करने के लिए कहा गया था। कहीं बड़े खर्चे हैं तो राजनीतिक दलों को ही इसकी प्रशासन से पहल करनी थी।
- अरुण तोमर, अपर मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी
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