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धार्मिक हिंसा और सामाजिक संघर्ष का महिलाओं की शादी की उम्र पर प्रभाव

 

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Sisir Debnath

Indian Institute of Technology Delhi

sisirdebnath@iitd.ac.in

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Sourabh Paul

Indian Institute of Technology Delhi

sbpaul@hss.iitd.ac.in

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Asad Tariq

Indian Insitute of Technology Delhi

asad.tariq@hss.iitd.ac.in

इस लेख में देबनाथ एवं अन्य अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2023 के उपलक्ष्य में I4I पर इस महीने चल रहे अभियान के अंतर्गत महिलाओं की शादी से जुड़े फैसलों पर हिंदू-मुस्लिम दंगों के प्रभावों का पता लगाते हैं। वे पाते हैं कि धार्मिक हिंसा की घटनाओं के कारण महिलाओं के प्रति यौन हिंसा की संभावनाओं को कम कराने के उद्देश्य से कम आयु में ही उनके विवाह करा दिए जाने हेतु प्रेरणा मिलती है। वे यह भी पाते हैं कि उनकी शादी कम उम्र में होने से उनकी शिक्षा प्राप्ति और उनके बच्चे पैदा करने की उम्र पर असर पड़ता है।

परिवार के अन्दर या बाहर होने वाले संघर्षों का अक्सर महिलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता आया है। भले साहित्य में जीवन-साथी या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा महिलाओं पर की जानेवाली हिंसा पर पर्याप्त रूप से शोध किया गया है, तथापि महिलाओं पर होने वाले सामाजिक संघर्षों के विभेदक प्रभावों के बारे में अपेक्षाकृत कम अध्ययन किया गया है। इनमें उल्लेखनीय अपवाद लू एवं अन्य (2021) हैं, जिन्होंने पाया कि पंजाब के विभाजन के दौरान विस्थापित किशोरियों की शादी कम उम्र में कर दी गई थी। मेनन और भसीन (1993) ने भी 1947 के विभाजन के समय हुए महिलाओं के अपहरण और उनके प्रति हिंसा के बारे में लिखा है और सैकिया (2011) ने बांग्लादेश के विभाजन के दौरान की घटनाओं में महिलाओं के खिलाफ हुए बलात्कार और हिंसा के अन्य रूपों के संबंध में लिखा है। म्यांमार में उत्पीड़न और मुस्लिम विरोधी हिंसा से हुए मानवाधिकारों के उल्लंघन के चलते मानव तस्करी, जबरन श्रम-कार्य करवाने और सामाजिक अन्याय की अनेक घटनाएं हुई हैं, जिससे मुस्लिम महिलाओं और बच्चों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है (अब्देल कादर 2014)। हम भारत में धार्मिक संघर्षों – विशेष रूप से हिंदू-मुस्लिम दंगों के महिलाओं के विवाह संबंधी निर्णयों पर हो रहे असर का पता लगाते हैं।

प्रेरणा और पद्धति

धार्मिक दंगे अक्सर स्थानीय हितों के टकराव के कारण भड़क उठते हैं। दुर्भाग्य से ऐसी घटनाएँ दुर्लभ नहीं हैं। ऐसी घटनाएं हिंसा-स्वरूप होती हैं और उनमें आर्थिक व्यवधान निर्माण करने की संभावना होती है (मित्रा और रे 2014)। इन घटनाओं के चलते कानून और व्यवस्था के अभाव में आर्थिक नुकसान तो होता ही है, साथ ही इनसे प्रभावित क्षेत्रों में सामाजिक विश्वास और कथित सुरक्षा भी भंग हो जाती है। पीड़ित समुदाय हिंसा की ऐसी विभिन्न घटनाओं से अधिक असुरक्षित और प्रभावित महसूस कर सकते हैं। सुरक्षा के बारे में चिंता महिलाओं की स्वतंत्रता में बाधाएं ला सकती है, और उनकी मानव-पूंजी और वैवाहिक निर्णयों को अलग-अलग रूपों में प्रभावित कर सकती हैं। बड़ौदा में हुए रथ यात्रा दंगों के (मेहता और शाह 1992) कारण महिलाओं द्वारा स्कूल छोड़ने की घटनाएं और 2002 के गुजरात दंगों (इंजीनियर 2002) के दौरान अल्पसंख्यक महिलाओं के खिलाफ अपमान के एक तरीके के रूप में यौन हिंसा किये जाने की खबरें हैं। हम वर्ष 1991-2000 के बीच महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों के राज्य-स्तरीय आंकड़ों का उपयोग करते हुए छेड़छाड़ तथा यौन उत्पीड़न और दंगों की घटनाओं के बीच ठोस प्रत्यक्ष संबंध भी पाते हैं।

इसलिए धार्मिक हिंसा की स्थिति में भले ही परिवार सीधे तौर पर हिंसा के शिकार न हुए हों, उनमें अपने परिजनों – विशेषकर बेटियों की सुरक्षा के प्रति एक आशंका और मनोवैज्ञानिक अपरिहार्यता नजर आती है। दक्षिण एशिया और अन्य पितृसत्तात्मक समाजों में बेटियों और अन्य महिला रिश्तेदारों को यौन हिंसा से बचाए रखना लगभग परिवार की इज्जत को बनाए रखने के समान माना जाता है। जहाँ बेटियों की सुरक्षा और उनकी भलाई की जिम्मेदारी माता-पिता पर आ जाती है, वहाँ संघर्ष-प्रवण क्षेत्रों में लड़कियों की शादी जल्दी कराने हेतु अधिक प्रेरणा मिलती है ताकि उनकी असुरक्षा को कम किया जा सके।

हम भारत के 16 बड़े राज्यों में वर्ष 1980-2000 के दौरान हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों के महिलाओं की शादी की उम्र पर पड़े कारक प्रभाव का अनुमान लगाते हैं। हम इन घटनाओं के संबंध का पता लगाने हेतु इन दंगों के बारे में वार्ष्णेय-विल्किंसन के विस्तारित आंकड़ा (वार्ष्णेय और विल्किंसन 2006, अय्यर और श्रीवास्तव 2018) तथा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के पांच दौरों के आंकड़ों को मिलाकर देखते हैं। हम महिलाओं को उनके विवाह के आधार (अर्थात, जिस वर्ष उनकी शादी हुई थी) पर वर्ष 1980 से 2000 के समूहों में विभाजित करते हैं। हम शादी की उम्र के अलावा दंगों के दीर्घकालिक और पीढ़ी दर पीढ़ी प्रभाव की पहचान करने हेतु महिलाओं की शिक्षा और प्रजनन परिणामों पर पड़े प्रभाव की भी जांच करते हैं।

शादी की उम्र पर दंगों का प्रभाव

दंगों और शादी की उम्र के बीच के कारक संबंध की पहचान करने में बड़ी चुनौती, दंगों की घटनाओं तथा कानून एवं व्यवस्था की सामान्य स्थिति के बीच स्पष्ट संबंध का होना है, जो अन्य प्रकार के अपराधों की संभावना को प्रभावित कर सकता है। दंगों का संबंध आय के स्तर (मित्रा और रे 2014) के साथ भी देखा जा सकता है, जिसके कारण शादी का फैसला प्रभावित होता है। अतः हम महिलाओं की शादी की उम्र पर पडने वाले हिंदू-मुस्लिम दंगों के कारण प्रभाव की जांच करने हेतु एक साधन चर दृष्टिकोण1 (अय्यर और श्रीवास्तव- 2018 के समान) का उपयोग करते हैं। हम एक बड़े राज्य में शुक्रवार के दिन हिन्दुओं के त्योहार को हुए दंगों का एक ‘साधन चर’ के रूप में उपयोग करते हैं। शुक्रवार मुसलमानों के लिए एक धार्मिक दिन है और यदि उसी दिन कोई हिंदू त्योहार भी आता है तो दोनों में सार्वजनिक स्थानों के लिए संघर्ष हो सकता है, जिससे दो समूहों के बीच तनाव हो सकता है। हम शुक्रवार को हुए दंगों और उस दिन आये बड़े हिंदू त्योहारों के बीच उल्लेखनीय सकारात्मक संबंध पाते हैं। शुक्रवार के दिन इन दोनों के संयोग से राज्य में दंगे की संभावना 16.8% बढ़ जाती है।

हम शादी की उम्र पर दंगों के महत्वपूर्ण और प्रतिकूल प्रभाव पाते हैं। राज्य-स्तरीय शुरूआती विश्लेषण से पता चलता है कि महिलाओं की शादी के एक साल पहले राज्य में हुए दंगे की घटनाओं से महिलाओं की शादी की उम्र में 1.3 साल की कमी आती है। बाद के हर एक दंगे के कारण शादी की उम्र में अतिरिक्त 0.125 साल की कमी आती है। दंगे की घटना से 18 वर्ष की उम्र से पहले शादी कराये जाने की संभावना में भी 13.4% की वृद्धि होती है।

शिक्षा और बाल मृत्यु-दर पर प्रभाव

लड़कियों शादी कम उम्र में कर दी जाती है, तो इस बात की संभावना होती है कि उनकी शिक्षा पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। हम यह भी पाते हैं कि दंगे महिलाओं की शिक्षा के वर्षों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं और कम उम्र में उनकी शादी कराये जाने से, दंगे की घटनाओं से महिलाओं की शिक्षा के वर्षों में 1.7 साल की कमी आती है। शादी के बाजार में मिश्रित मिलान होता है, और चूँकि अपेक्षाकृत कम पढ़ी-लिखी दुल्हनों की कम पढ़े-लिखे दूल्हों से शादी कराई जाती है, यह 'कम योग्यता वाले दूल्हे' के साथ शादी कराये जाने का कारण बनता है।

आमतौर पर महिलाओं की कम उम्र में शादी कर दी जाती है, इसलिए इसका परिणाम उनके कम उम्र में गर्भधारण करने और कम उम्र में ही माता बनने पर होता है। हम महिलाओं की कम उम्र में शादी और बाल मृत्यु-दर पर इसके अंतर-पीढ़ीगत परिणामों के अनुभवजन्य साक्ष्य पाते हैं। हमे प्राप्त अंतिम परिणामों से पता चलता है कि दंगे की घटना से पहले बच्चे की मृत्यु दर में 2% से अधिक की वृद्धि होती है। हम अनुभवजन्य रूप से उस सटीक कारण की पहचान करने में असमर्थ हैं जिसके माध्यम से दंगे बाल मृत्यु-दर को प्रभावित करते हैं, इसके लिए समय-पूर्व गर्भावस्था और गर्भावस्था के दौरान के अभिघात-जन्य तनाव विकार संभावित चैनल हो सकते हैं।

निष्कर्ष और नीति निहितार्थ

हम अनुभवजन्य रूप से शादी की उम्र पर दंगों के नकारात्मक प्रभाव को स्पष्ट दर्शाते हैं। इसके अलावा, हम अन्य परिणामों – जैसे बाल विवाह, कम उम्र में गर्भधारण, और कम उम्र में शादी के कारण होने वाले बाल मृत्यु-दर पर इस नकारात्मक प्रभाव के प्रभावों की भी जांच करते हैं। हम पाते हैं कि किसी राज्य में शादी से पहले के साल में दंगों की घटना उस राज्य में 18 साल की उम्र से पहले शादी कराये जाने की बढ़ती संभावना से जुड़ी है, जिसके कारण महिलाएं कम उम्र में माताएं बनती हैं और उनकी संतानों के जीवित रहने की संभावना कम होती है।

हालांकि, हमारे निष्कर्ष में एनएफएचएस में दर्ज सभी महिलाओं के परिणामों का प्रतिनिधित्व है, चाहे वे किसी भी समुदाय की हों। हमें अभी इस बात की भी जाँच करनी है कि क्या दंगे अन्य विषमता परीक्षणों के साथ-साथ मुस्लिम या हिंदू महिलाओं को असमान रूप से प्रभावित करते हैं। फिर भी, महिलाओं और उनके नवजात शिशुओं पर पडने वाले दंगों के नकारात्मक प्रभाव, दंगों से प्रभावित समुदायों में पुनर्वास, आय, सुरक्षा और स्वास्थ्य देखभाल में सहायता करने वाले उपयुक्त नीतिगत उपायों की आवश्यकता को इंगित करते हैं। 

टिप्पणी:

  1. साधन चर का उपयोग अनुभवजन्य विश्लेषण में अंतर्जात चिंताओं को दूर करने के लिए किया जाता है। कोई साधन चर व्याख्यात्मक कारक के साथ सह-संबद्ध है, लेकिन वह सीधे हित के परिणाम को प्रभावित नहीं करता हो, तो उसका उपयोग व्याख्यात्मक कारक और हित के परिणाम के बीच वास्तविक कारक संबंध को मापने हेतु किया जा सकता है – इस मामले में, एकमात्र तंत्र जिसके जरिये साधन चर शादी की उम्र को प्रभावित कर सकता है, वह दंगे की घटना है।


लेखक परिचय: शिशिर देबनाथ भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी), दिल्ली में मानविकी और सामाजिक विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। सौरभ पॉल आइआइटी-दिल्ली में अर्थशास्त्र के असोसिएट प्रोफेसर हैं। असद तारिक आईआईटी-दिल्ली में अर्थशास्त्र में पीएचडी कर रहे हैं। 

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