प्रदेश यह तय करने के लिए बड़े पैमाने पर मंथन से गुजर रहा है कि क्या धार्मिकता के गढ़े गए आक्रामक तर्कों और तरीकों से आदमी की भूख शांत की जा सकती है।
उत्तर प्रदेश में एक कहावत खूब प्रचलित है-'भूखे भजन न होए गोपाला, ये ले अपनी कंठी माला'। उत्तर प्रदेश में जारी चुनावी जंग में यही कहावत चरितार्थ हो रही है। भारतीय जनता पार्टी के योगी आदित्यनाथ द्वारा अपने पांच साल के कार्यकाल के दौरान आक्रामक तरीके से किया गया शासन का भगवाकरण, जिसकी नई दिल्ली और मीडिया ने सब प्रकार से भरपूर सराहना की, वह अब नौकरियों की कमी, बढ़ती कीमत, कम मजदूरी, और सबसे बढ़कर लोगों के लिए जिंदगी और मौत के इन मुद्दों पर सत्ताधारी दल की उदासीनता को लेकर एक अशांत और असंतुष्ट आबादी के आमने-सामने है। समूचे सूबे में लोगों को प्रायः यह कहते सुना जाता है कि भाजपा अपनी बात पर कायम नहीं रहती, कि उसने जनता से किए अपने वादे पूरे नहीं किए।
यह महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उत्तर प्रदेश वह राज्य था, जिसने 2017 के पिछले विधानसभा चुनाव में राज्य के 403 सदस्यों वाले सदन में भाजपा एवं उसके सहयोगियों को 325 सीटों पर जिता कर एक प्रचंड जनादेश दिया था। इसके बाद 2019 में हुए आम चुनाव में भाजपा गठबंधन ने एक बड़ी सफलता हासिल करते हुए प्रदेश में लोक सभा की कुल 80 सीटों में से 64 सीटें जीत ली थीं। इस तरह के प्रबल जनमत हासिल करने के साथ, वे अति दबावकारी स्थितियों से निबटने में कहीं न कहीं असाधारण रूप से गलत हो गए होंगे।
योगी का ध्रुवीकरण शासन
योगी आदित्यनाथ एक 'भिक्षु' हैं, जिनके पास कुछ बंदूकों समेत 1.54 करोड़ रुपये की निजी संपत्ति है। ये योगी गोरखपुर से पांच बार सांसद रह चुके हैं, जहां वे प्रसिद्ध गोरखनाथ मठ का हिस्सा रहे थे (और उसके कर्ता-धर्ता थे)। यह कहा जाता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सूबे में भाजपा के कई दिग्गजों को दरकिनार करते हुए योगी को 2017 में उप्र का मुख्यमंत्री बनाया था।
योगी को उनके प्रशासनिक अनुभव के लिहाज से तो मुख्यमंत्री पद के लिए नहीं चुना जा सकता था, क्योंकि उनके पास ऐसा कोई अनुभव ही नहीं था। लिहाजा, उनके चयन का मुख्य कारण एक शक्तिशाली हिंदुत्व ध्वजवाहक के रूप में उनकी साख हो सकती है, जो राजनीतिक बारीकियों के कारण नहीं शर्माएंगे। उस हद तक योगी ने अपना काम बखूबी किया है। उन प्रचंड दिनों से, योगी और मोदी ने नियमित रूप से एक-दूसरे की प्रशंसा करते रहे हैं। उन्होंने लोगों को यह याद दिलाने का कोई मौका नहीं छोड़ा है कि लखनऊ में वही 'डबल इंजन' सरकार है, जिसकी देश की इस सबसे अधिक आबादी वाले और सबसे पिछड़े राज्यों में से एक उत्तर प्रदेश की भारी दरकार है।
तब से ही, सूबे में लाखों रोजगारों के अवसर सृजित करने, चहुंमुखी विकास करने, सड़कें बनवाने और अस्पतालों के निर्माण आदि के लंबे-चौड़े वादे किए गए थे। बड़े कॉर्पोरेट क्षेत्र द्वारा निवेश किए जाने पर बहुत जोर दिया गया था। एक वैश्विक निवेशक शिखर सम्मेलन आयोजित भी किया गया था, जहां भारत के अरबपति क्लब के दिग्गज निवेश निधि की लहर फैला देने के वादे करते हुए मौजूद थे। जाहिर है, इस उपक्रम को प्रदेश में रोजगार के भरपूर अवसर पैदा करने वाला माना गया था।
लेकिन पांच साल पीछे मुड़कर देखें, तो इस बात से आंखें नहीं मूंदी जा सकती है कि योगी स्वयं अपने असली वैचारिक इंजन-आक्रामक हिंदुत्व में ही बहुत अधिक संलिप्त थे। विकास अवश्य एक वादा था, लेकिन उन्होंने और उनकी सरकार ने जनता को जो दिया, वह घोषित कट्टरता और सांप्रदायिक भय-चिंता के कारक का ही मिश्रण था। मुख्यमंत्री बनने के बाद, उन्होंने 'लव जिहाद' को समाप्त करने के अपने संकल्प की घोषणा की, 'माफिया' और 'गुंडा राज' को समाप्त करने के लिए अक्सर अराजकता की सीमा तक पुलिस बलों का उपयोग किया, मुसलमानों को कोरोना वायरस फैलाने के लिए दोषी ठहराया, उनके द्वारा कथित रूप से किए जाने वाले 'धर्मांतरण' की आलोचना की, और इसी तरह के कई काम किए।
यदि कोई गौर करना चाहे तो वह देख सकता है कि इस विभाजनकारी जुनून के व्यावहारिक कारक हैरतअंगेज हैं। उदाहरण के लिए, योगी ने हाल ही में देवबंद में, जहां एक प्रसिद्ध इस्लामी धार्मिक स्कूल, दारुल उलूम स्थित है, वहां एक आतंकवाद विरोधी दस्ते (एटीएस) प्रशिक्षण केंद्र का उद्घाटन किया है। अपने भाषण में हद तक मुखर होते हुए उन्होंने कथित तौर पर कहा कि यह आतंकवादियों के लिए उनका संदेश था।
अपने पूरे पांच वर्षों के कार्यकाल के दौरान, योगी ने बारहां कहा है कि उनकी पूर्ववर्ती सभी सरकारों ने हिंदुओं के श्मशान घाटों पर मुस्लिम के कब्रिस्तानों को तरजीह देने, बिजली कनेक्शन में भेदभाव करने और राशन को डायवर्ट करने के काम किए हैं।
इसके अलावा भी मुद्दे हैं, जिनमें योगी ने जबरन धर्मांतरण, गोमांस खाने और गोकशी करने, आतंकवाद से उनकी कथित सांठगांठ को लेकर मुसलमानों को निशाना बनाया है और इस समुदाय को लेकर हिंदुओं में भय की मनोविकृति पैदा करने की कोशिश की है।
भेदभावपूर्ण नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के 2019 में पारित होने के बाद इसके खिलाफ देश भर में प्रदर्शन शुरू हो गए और कई जगहों पर विशाल प्रदर्शन भी हुए। यूपी में भी, मुस्लिम समुदाय की बड़ी भागीदारी के साथ प्रदर्शन किए गए थे, लेकिन हजारों गैर-मुस्लिम धर्मनिरपेक्ष लोगों ने भी विरोध प्रदर्शन किए थे। इन प्रदर्शनकारियों को उप्र के कई शहरों और कस्बों में पुलिस के दमन का सामना करना पड़ा, जिसमें कम से कम 23 लोग मारे गए थे, जो सभी के सभी मुसलमान थे। इनमें ज्यादातर बहुत गरीब थे, जो दिहाड़ी पर मजदूरी करते थे। इसके साथ ही, सरकार ने कथित तौर पर बिना किसी कानूनी प्रक्रिया का पालन के ही, 500 परिवारों को 3.35 करोड़ रुपये के नुकसान की वसूली का नोटिस थमा दिया। इनमें कई लोगों के नाम और पते को बाकायदा होर्डिंग लगाकर उन्हें सार्वजनिक कर दिया गया और इस तरह से उन्हें शर्मिंदा किया गया।
यह राज्य में मुस्लिम समुदाय को आतंकित करने का एक कदम था, न केवल हिंसक राज्य कार्रवाई के जरिए बल्कि बड़े पैमाने पर आर्थिक दंड के माध्यम से भी ऐसा किया गया। इसके लिए आनन-फानन में योगी सरकार एक नया कानून ले आई। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने उसमें तय प्रक्रिया का उल्लंघन पाते हुए सरकार को तीखी फटकार लगाई है। इसी तरह, पुलिस की कथित फर्जी मुठभेड़ों के जरिए भी अल्पसंख्यक समुदाय को आतंकित करने का काम किया गया।
गृह विभाग के एक आधिकारिक बयान के अनुसार, 20 मार्च 2017 से लेकर 20 जून 2021 तक प्रदेश में 139 अपराधी पुलिस मुठभेड़ों में मारे गए हैं और 3,196 घायल हुए हैं, जबकि इसी वजह से 13 पुलिसकर्मी भी मारे गए हैं और 1,122 घायल बताए जाते हैं। कथित तौर पर योगी के शासन के पहले तीन वर्षों में हुई मुठभेड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि मारे गए लोगों में 37 फीसदी मुस्लिम थे।
हिंदू मतदाताओं को जीतने की कोशिश करने के लिए मुख्यमंत्री योगी इन कार्यों का दिखावा करते रहे हैं, लेकिन यह भी दावा जताते रहे हैं कि उन्होंने 700 मंदिरों एवं तीर्थों का जीर्णोद्धार किया है। लेकिन इसमें उनका सबसे बड़ा दावा यह है कि भाजपा सरकार ने अयोध्या में महान राम मंदिर का निर्माण शुरू कर दिया है। यह बिल्कुल ही बेतुका है क्योंकि इसकी अनुमति किसी और ने नहीं, खुद सुप्रीम कोर्ट ने दी थी, लेकिन योगी के प्रदेश में तो कुछ भी हो जाता है।
इस साल मंदिर के शहर अयोध्या में 90,000 दीपक जला कर विश्व रिकार्ड बनाया गया था,हालांकि इस परिघटना के तत्काल बाद ही राज्य की खस्ताहाल आर्थिक दशा की पोल खुल गई, जब दिए में इस्तेमाल किए गए 3,600 लीटर सरसों का तेल इकट्ठा करने के लिए सैकड़ों लोग घाटों पर उतरे गए थे। इस तेल उपयोग खाना पकाने के लिए किया जाता है और उस समय यह 200 रुपये प्रति लीटर से अधिक दाम पर बिक रहा था।
जैसे ही पश्चिमी यूपी में पहले चरण के लिए चुनाव प्रचार तेज हुआ, योगी और भाजपा के अन्य शीर्ष नेताओं ने 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों को लेकर जमकर हंगामा किया। एक बार फिर दावा किया कि इसकी वजह से अनेक हिंदू परिवारों को अपने घरबार बेचकर यहां से भागना पड़ा था। बाद में यह पता चला कि कुछ हिंदू परिवारों ने दंगे की वजह से नहीं बल्कि अन्य कारणों से कैराना छोड़ दिया था, और कुछ मरे हुए लोगों को भी "भाग गए" की सूची में दर्ज कर लिया गया था। फिर भी, इसके बावजूद इस तथ्य का विकृत संस्करण वर्तमान चुनाव में प्रचार का एक मुद्दा तो बन ही गया है।
आर्थिक कारक हावी
पिछले कुछ हफ्तों के व्यस्त चुनाव प्रचार ने योगी सरकार के अमोघत्व और प्रभुत्वसंपन्न छवि को चकनाचूर कर दिया है। ऐसा लगता है कि कई मुद्दों ने, इनमें से ज्यादातर आर्थिक मुद्दों ने, एक और बड़ी जीत के लिए सरकार की कोशिश में एक खरोंच लगा दी है। इन मुद्दों में किसानों के सरोकार भी शामिल हैं, जिनकी मांगों को लेकर साल भर तक आंदोलन चला था और जिनकी वजह से ही मोदी सरकार ने तीन काले कृषि कानूनों को वापस लेने पर मजबूर होना पड़ा था।
चूंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर आंदोलन में भागीदारी की गई थी, इसलिए इस क्षेत्र में भाजपा का जनाधार निर्णायक रूप से पार्टी से छिटक गया है। इसके अलावा, कई अनसुलझे कारक भी इसके प्रति जिम्मेदार हैं, जैसे गन्ना बकाए का भुगतान, एक केंद्रीय मंत्री को बर्खास्त न करना, जिनका बेटा कथित रूप से पिछले साल लखीमपुर खीरी में चार किसानों को कुचल कर अपनी गाड़ी भगाने में शामिल था, और प्रदर्शनकारी किसानों के खिलाफ दर्ज मामलों को वापस न लेने से मोदी-योगी की 'डबल इंजन' वाली सरकार के खिलाफ किसानों का गुस्सा बढ़ रहा है।
राज्य में बड़ी संख्या में किसान विभिन्न पैदावारों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) प्राप्त करने से वंचित हैं। योगी सरकार द्वारा गोहत्या पर लगाए प्रतिबंध के बाद आवारा पशुओं के कारण फसलों को होने वाली तबाही ने भी कथित तौर पर किसानों को नाराज कर दिया है। चूंकि उप्र. काफी हद तक एक कृषि प्रधान राज्य है, इसलिए इन मुद्दों पर किसानों के असंतोष की आवाज पूरे राज्य में गूंजी है और इससे हर जगह पर सत्ताधारी भाजपा के जनाधार को नष्ट करने की संभावना है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दोनों ही के द्वारा युवाओं को नौकरी देने के वादों के बावजूद बेरोजगारी के उच्च स्तर पर जारी रहना एक और गंभीर वास्तविकता है, जो भाजपा के प्रति मतदाताओं के मोहभंग का कारण बन रही है। हाल ही में रेलवे में नौकरी के इच्छुक उम्मीदवारों के फटे गुस्से और इलाहाबाद में पुलिस की त्वरित कड़ी कार्रवाई से बेरोजगार युवाओं में भाजपा सरकार के प्रति प्रबल आक्रोश ही जाहिर हुआ है, जबकि एक अनुमान के मुताबिक उत्तर प्रदेश सरकार में ही लाखों रिक्तियां हैं, वहीं केंद्र सरकार में 15 लाख पद खाली पड़े हैं।
कई अन्य आर्थिक नीतिगत मामलों में, योगी सरकार बुरी तरह से लड़खड़ा गई हैः सकल राज्य घरेलू उत्पाद में औद्योगिक योगदान में गिरावट आई है, वह 35 फीसदी से घट कर 31 फीसदी हो गई है। आर्थिक संवृद्धि भी 2016-17 में जहां दहाई में 11.4 फीसदी थी, वह योगी के पदभार ग्रहण करने के बाद 2018-19 वित्तीय वर्ष में ईकाई में बदल कर महज 6.3 फीसदी हो गई, और 2020-21 में कोरोना महामारी के दौरान तो यह माइनस 6.4 फीसदी हो गई। योगी राज में ग्रामीण मजदूरी की दर बहुत कम रही है और राज्य सरकार पर 40 फीसदी कर्जा बढ़ गया है।
यह आम लोगों के अपार दुख और कठिनाई में रूपांतरित हो गया है। इसमें निर्विवाद रूप से कोविड-19 का कुप्रबंधन भी शामिल है, जिसने कई कस्बों और शहरों में गंगा नदी में लाशों को तैरते हुए देखा, राज्य की स्वास्थ्य प्रणाली में फांक और प्रियजनों को खोने की गहरी पीड़ा के साथ आर्थिक लागत का बोझ उठाना पड़ा।
सांप्रदायिक घृणा या आर्थिक प्रगति
उत्तर प्रदेश में, लोगों ने एक बार सोचा था कि भाजपा बिना किसी भेदभाव के या टकराव के 'विकास' का प्रतिनिधित्व करती है। कुछ तबके यह सोचकर कुछ धार्मिक हथकंडे अपनाने को भी तैयार थे कि इससे विकास कार्य बाधित नहीं होंगे। हालांकि, पिछले पांच वर्षों ने इस कड़वी वास्तविकता को उजागर कर दिया है कि यह विकास तो एक पर्दा है, सरकार की असली मंशा और मकसद भाजपा/आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) की अवधारणा वाले हिंदू राष्ट्र के तरीके का शासन लागू करना था। इस तरह के शासन में किसान हों, या युवा, छात्र हों या महिला हों, दलित तथा अन्य पिछड़ा वर्ग हों; वे सभी के सभी वंचित और अलाभान्वित ही बने रहेंगे। भाजपा का शासन मॉडल स्वाभाविक रूप से त्रुटिपूर्ण है और उत्तर प्रदेश आज जो महसूस कर रहा है, उसे देश का अन्य हिस्सा भी जल्द ही महसूस कर सकता है।
SOURCE ;.newsclick.in
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