जो कुछ सामान्य या अपेक्षित होता है, मोदी सरकार की अगुआई में चल रहे इस इस देश में वह सब कुछ उल्टा-पुल्टा ही दिख रहा है।
पिछले साल से ‘आत्मनिर्भर भारत’ शब्द चारों तरफ़ हवा में लगातार उछल रहा है। हाल ही में पेश किये गये बजट में भी यह शब्द हर तरह के मंत्र के तौर पर गाहे-बगाहे प्रत्याशित रूप से सामने आता रहा। 13 फ़रवरी को बजट पर तीखी बहस का जवाब देते हुए वित्त मंत्री ने फिर से कहा कि यह बजट 'आत्मनिर्भर भारत' के निर्माण का है।
यह लेविस कैरॉल की किताब, 'थ्रो लुकिंग ग्लास' के एलिस और अहंकारी हम्प्टी डम्प्टी के बीच इस मशहूर बातचीत की याद दिलाता है :
हम्प्टी डम्प्टी ने कहा, “जब मैं किसी शब्द का इस्तेमाल एक भद्दे लहज़े में करता हूं, तो इसका मतलब सिर्फ उतना ही होता है, जितना कि मैं चाहता हूं- न उससे ज़्यादा और न उससे कम।"
ऐलिस ने कहा, “सवाल यह है कि क्या आप शब्दों को इतने अलग-अलग मायने बना सकते हैं?"
हम्प्टी डम्प्टी ने कहा,"सवाल है कि मालिक कौन है- मायने इतना ही रखता है।"
आत्मनिर्भरता कोई नया गढ़ा गया शब्द तो है नहीं, ख़ासकर भारतीयों के लिए तो बिल्कुल नहीं है। आपको याद हो कि इसका मतलब ऐसे देश से था, जो खाद्य पदार्थ, औद्योगिक उत्पादन, सुरक्षा, वैज्ञानिक खोज और वास्तव में सामूहिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के मामले में आत्मनिर्भर हो। यह शब्द तब आकार लिया था, जब भारत एक उभरते हुए नये-नये आज़ाद देश के रूप में अपने पांव जमाने की कोशिश कर रहा था, साम्राज्यवादी खेमेबंदी से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था।
लेकिन, मौजूदा दौर में बहुत-सी अन्य चीज़ों की तरह इसका इस्तेमाल अक्सर इसके उलट अर्थ में किया जाता है। हालांकि चाटुकारिता करने वाले क्षत्रपों ने फलां सूबे या फलां गांव को आत्मनिर्भर बनाने की बात करते हुए इस “आत्मनिर्भर” शब्द को अजीब-ओ-ग़रीब चरम तक पहुंचा दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके वफ़ादार मंत्रिमंडल के सहयोगियों ने प्राकृतिक संसाधनों और सरकारी स्वामित्व वाले उद्यमों को बेचने से लेकर कृषि के कारोबार करने और श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने तक के लिए ‘आत्मनिर्भर’ अभियान के हिस्से के रूप में इसका इस्तेमाल किया है।यही वजह है कि हम्प्टी डम्प्टी का नीचे तक असर डालने वाला यह शब्द अब हर तरफ़ दिखने लगा है। यहां भी इस ‘आत्मनिर्भर भारत’ का अर्थ वही है, जो मालिक चाहता है,यानी बाक़ी लोग इसका जो कुछ मायने लगाते हों, उसका कोई मतलब नहीं है। फिर भी, समझने के लिए उन तमाम बातों पर नज़र डालना ज़रूरी है,जिन्हें आत्मनिर्भरता के इस अभियान का हिस्सा कहा गया है।
इस नयी आत्मनिर्भरता की ख़ासियत
आइये,हम अपनी शुरुआत उस बात से करते हैं, जो एकदम शीशे की तरफ़ साफ़ है। अपने छह साल के शासनकाल के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने रक्षा, नागरिक उड्डयन, रेलवे, कोयला, खनन, मीडिया, शिक्षा, बीमा, ई-कॉमर्स, खुदरा, और एक ध्वस्त हो रही अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) में ढील दी। लेकिन, कुछ लोग यह तर्क देंगे कि विदेशी निवेश उन स्थितियों के लिए ज़रूरी संसाधन उपलब्ध नहीं कराता है, जहां पैसे नहीं हैं? अगर ऐसा था, तो कोयले में विदेशी निवेश की अनुमति क्यों दी गयी। आख़िरकार, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी-कोल इंडिया,जो भारत के ज़्यादातर कोयले का उत्पादन करती है, दुनिया की शीर्ष 10 कोयला उत्पादन कंपनियों में से एक है।इसके बावजूद कोयला खनन में एफ़डीआई की अनुमति देना वास्तव में भारत के कोयला भंडार को उन लुटेरे खनन दिग्गजों को बेच देने की तरह है, जिन्हें भारी मुनाफ़ा होना है। ऐसे में मोदी सरकार से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या इससे भारत ज़्यादा आत्मनिर्भर बनता है या भारत की आत्मनिर्भरता में कमी आती है? फिर इस बजट में धूम-धड़ाके के साथ सार्वजनिक क्षेत्र के एकमुश्त निजीकरण की घोषणा की गयी है, इससे कॉर्पोरेट दिग्गजों के बीच ख़ुशी की लहर फैल गयी है। घोषणा की गयी कि कुछ को छोड़कर सभी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का निजीकरण छोटे या बड़े स्तर पर किया जायेगा। सभी लाभ कमाने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों ने मिलकर पिछले साल 1.7 लाख करोड़ का शुद्ध लाभ कमाया था और उस साल सरकार को 77,000 करोड़ रुपये का लाभांश दिया था। निजीकरण की ओर उठाये गये इस क़दम के साथ इन सभी बातों का कोई मतलब नहीं रह जाता है। सार्वजनिक संसाधनों का इतना नुकसान हो रहा है, इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि इससे हज़ारों लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठेंगें,ऐसे में मोदी सरकार से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या इससे भारत आत्मनिर्भर बन जायेगा?
इस ‘आत्मनिर्भर भारत’ की एक अन्य विशेषता यह है कि जो लोग कभी परदे के पीछे से तार खींचा करते थे, अब वही लोग महाशक्ति भारत के इन नये देवताओं का अभिषेक कर रहे हैं। ये कोई और नहीं, हमारे देश के कॉर्पोरेट नवाब हैं। बार-बार उन्हें "धन पैदा करने वाले" और भारत की महान उद्यमशीलता की भावना का मूलतत्व बताया जा रहा है। उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए उनकी रक्षा करना भी इस ‘आत्मनिर्भर’ मिशन का हिस्सा है। सवाल है कि सरकार उनकी मदद कैसे करती है?उन्हें औने-पौने मूल्यों पर औद्योगिक संपत्ति दिये जाने के अलावा, 2019 में कॉर्पोरेट जगत के करों में भारी कटौती भी की गयी थी। बेस कॉरपोरेट टैक्स की दर 30% से 22% और नयी निर्माण कंपनियों के लिए 25% से 15% तक घटा दी गयी थी, जिससे कि उनकी संपत्ति में अचानक से अनुमानित 1.45 लाख करोड़ रुपये की ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी हो गयी थी।
इस इकलौते कार्य ने मौजूदा सरकार को इस कॉर्पोरेट तबके का हमेशा-हमेशा के लिए दुलारा बना दिया है। इस बात को याद रखना ज़रूरी है कि भारत के शीर्ष 1% सबसे अमीर शख़्स, समाज के इसी कॉर्पोरेट समूह से आते हैं, जिनके पास पहले से ही देश के पूरे वार्षिक बजट के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा संपत्ति है, और इनके पास उतनी संपत्ति है, जितनी कि 95 करोड़ से ज़्यादा भारतीयों की कुल संपत्ति है।
सवाल है कि इससे आख़िर किस तरह से आत्मनिर्भरता में मदद मिलती है? निश्चित रूप इससे तो कॉरपोरेट क्षेत्र की ही मदद होगी-वे तो अपने पैसे बना रहे हैं। लेकिन, अगर करोड़ों भारतीयों को ग़रीबी में रखा जाता है,और सरकार अगर आबादी के केवल 1% लोगों के हाथों में अपने संसाधन (करों से उगाही गयी राशि) गंवा बैठी है, तो क्या इससे देश को मज़बूती मिल पायेगी? यह सब कौन बतायेगा?
लोगों के लिए उपहार
मोदी सरकार ने कथित रूप से ‘आत्मनिर्भर भारत’ के निर्माण के लिए देश के मौजूदा क़ानूनी और वैधानिक ढांचे में तीन दूरगामी बदलाव किये हैं। इन सभी बदलावों को ग़रीबों की समृद्धि और उनकी बेहतरी के लिए ज़रूरी क़रार दिया गया है। ज़ाहिर है, ‘आत्मनिर्भर भारत’ की इस हम्प्टी डम्प्टी दुनिया में इस बात का उल्टा अर्थ है और वह यह है कि ये तीनों बदलाव किसानों, श्रमिकों और छोटे उद्यमों की ज़िंदगी तबाह कर देंगे।
देश की कराधान प्रणाली में बड़ा मूल्यगत परिवर्तन 2017 में वस्तु एवं सेवा कर (GST) लाना था। इस इकलौते क़दम ने सूक्ष्म, छोटे और मझोले उद्यमों (MSME) की बाज़ी पलट कर रख दी, जिससे इन सभी को एक बहुत बड़ा नुकसान हुआ और इन उद्यमों को कमज़ोर कर दिया। कॉर्पोरेट क्षेत्र रोमांचित था- उसने इस बदलाव का स्वागत किया और इन बदलावों से वह लाभान्वित भी हुआ। एमएसएमई क्षेत्र के लिए इस क़रारी चोट ने भी कॉर्पोरेट क्षेत्र की मदद की, क्योंकि इस छोटे से हथियार से अब वे किसी भी तरह की प्रतिस्पर्धा को ख़त्म कर सकते थे। इस बदलाव ने राज्यों के अपने ख़ुद के करों से सृजित होने वाले संसाधनों से वंचित करके संघीय रिश्तों को भी नष्ट कर दिया। केंद्र सरकार को इस नुकसान की भरपाई करनी थी, लेकिन इसने अपने हाथ खींच लिए,जिससे राज्य कर्ज़ के बोझ से और लद गये। केंद्र सरकार का ‘एक देश,एक कर’ का सपना सही मायने में राज्य के राजस्व पर उसके नियंत्रण का और हथियार है और राज्य को यह पहल भिखारी बना देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती है।
दूसरा बड़ा बदलाव था- 29 श्रम क़ानूनों को ख़त्म किया जाना और उनकी जगह चार श्रम क़ानूनों का लाया जाना। "सुधार" की इस प्रक्रिया में मोदी सरकार ने काम पर रखने और काम से निकालने की पूरी आजादी दे दी, अनुबंधित नियुक्तियों (निश्चित अवधि के लिए) की अनुमति दे दी, वेतन निर्धारण प्रणाली को कमज़र कर दिया, उसे लागू किये जाने की प्रणाली को कमज़ोर कर दिया और नियोक्ताओं को इन नियमों या प्रणालियों के अतिक्रमण को लेकर छूट दे दीं।दूसरे क़ानूनों के सथ मिलकर ये क़ानून ट्रेड यूनियनों के गठन को और अधिक मुश्किल बना देते हैं,क़ानूनों में हुए इस बदलाव ने काम के घंटे बढ़ाकर,वेतन घटाकर, नौकरी की सुरक्षा में कमी लाकर, सामाजिक सुरक्षा को कमज़ोर करके और सौदेबाजी की ताक़त को कमज़ोर बनाते हुए सही मायने में भारत की विशाल औद्योगिक कार्यबल को ग़ुलाम में बदल दिया है। आख़िर इन सबसे मज़बूत ‘आत्मनिर्भर भारत’ बनाने में किस तरह मदद मिलती है,यह तो सिर्फ़ मोदी सरकार को ही पता है।
तीसरा बड़ा बदलाव पिछले साल का वह बदलाव था, जब मोदी सरकार ने महामारी की आड़ में उन तीन कृषि सम्बन्धी क़ानूनों को पारित करवा लिया था, जो कि एक साथ मिलकर किसान की मौजूदा स्वायत्तता को ख़त्म कर देंगे, और उन कॉर्पोरेट घरानों को अकूत ताक़त दे देंगे, जो यह निर्धारित करेंगे कि खेतों में क्या बोया जाये और कौन-सी फ़सल पैदा की जाये, यह भी कि किस क़ीमत पर उन फ़सलों को बेचा जाये, इनका कारोबार कैसे हो और उपभोक्ता को किस क़ीमत पर मिले। इन क़ानूनों को पारित करके सरकार ने खाद्यान्नों की उस सार्वजनिक ख़रीद और वितरण को समाप्त करने की दिशा में एक क़दम उठा लिया है,जो इस देश के ग़रीबों की जीवन रेखा है। यह खाद्य पदार्थों में भारत की आत्मनिर्भरता को नष्ट कर देगा और आख़िरकार इसे खाद्यान्न आयात पर निर्भर बना देगा। क्या यही ‘आत्मनिर्भर भारत’ के पीछे का नज़रिया है?
हज़ारों ऐसे तरीक़े हैं, जिनसे भारत की आत्मनिर्भरता क़ायम थी, उन्हें इस सरकार ने ख़त्म कर दिया है और उन्हें नुकसान पहुंचाया है। लेकिन, यह बात नहीं भूलें कि इस नये ‘आत्मनिर्भर भारत’ का अर्थ उतना ही और वही है, जितना और जैसा अर्थ मालिक चाहता है।
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(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)
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