यद्यपि कई अध्ययनों में जातियों में स्वास्थ्य और शैक्षिक परिणामों में अंतर की जांच की गई है, लेकिन व्यावहारिक प्राथमिकताओं और व्यक्तित्व लक्षणों में जातिगत अंतर पर बहुत कम साक्ष्य उपलब्ध हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में ऐतिहासिक रूप से हाशिए रहे सामाजिक समूहों के लिए निश्चित संख्या में सीटें आरक्षित हैं। वहाँ के 2,000 स्नातक छात्रों के बीच किए गए प्रोत्साहन प्रयोगों और सर्वेक्षणों के आधार पर इस लेख से पता चलता है कि निचली जातियों और उच्च जातियों के बीच काफी बडा अंतर मौजूद हैं।
ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाले और भेदभाव सहने वाले समूह, उपलब्धियों और कल्याण के विशिष्ट संकेतकों पर, उच्च-स्तरों वाले सामाजिक समूहों के व्यक्तियों की तुलना में बदतर प्रदर्शन करते रहे हैं।ये अंतर सामाजिक पहचान के कई घटकों जैसे नस्ल, जातीयता, धर्म, लिंग और जाति में मौजूद हैं। सामजिक रूढ़ियों के समावेशन पर उपलब्ध साहित्य यह बताता है कि निवारण के लिए यह समस्या काफी जटिल है।पहचान रेखाओं के साथ गहराई तक फैले सामाजिक विभाजन और पहचान रूढ़ियों की पुष्टि करने वाले विकल्पों का पालन करना अल्पसंख्यक समूहों के विकल्पों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है, एवं उनके विकल्पों को सीमित कर सकता है, उन पर हावी रहे जाने तथा उप-इष्टतम परिणामों को बढ़ावा दे सकता है (एकरलॉफ एवं क्रेनटॉन 2010)। नतीजतन वहाँ भेदभाव, कलंक और स्वयं को कम आंके जाने के साथ वर्गीकृत सामाजिक संरचनाओं का एक दुष्चक्र बन जाता है, जिससे इसमें नकारात्मक रूढ़ियों का समावेश हो जाता है और इसके परिणामस्वरूप निरंतर खराब नतीजे दिखाई पड़ते हैं (ताजफेल एवं टर्नर 1986, मेजर एवं ओ'ब्रायन 2005)।
भारत के मामले मेंयहां निचली जातियों, अर्थात अनुसूचित जातियों (एससी1) तथा अनुसूचित जनजातियों (एसटी2), ने शैक्षिक एवं व्यावसायिक अर्जन (मुंशी एवं रोज़ेनज़्वीग 2006),मजदूरी और उपभोग (हनेटकोवस्क एवं अन्य 2012) और व्यापार स्वामित्व (देशपांडे और शर्मा 2016) में उच्च जातियों की तुलना में बदतर प्रदर्शन किया है।हालांकि संसद और राज्य विधानसभाओं, स्थानीय सरकारों, उच्च शिक्षण संस्थानों एवं सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने एससी और एसटी के बीच गरीबी को कम करने, शैक्षिक प्राप्ति में सुधार करने और सार्वजनिक वस्तुओं तक पहुंच के मामले में सकारात्मक प्रभाव डाला (उदाहरण के लिएपांडे 2003, चिन और प्रकाश 2011 देखें), परंतु एससी/एसटी और गैर-एससी/एसटी के बीच अभी भी बड़ा अंतरबना हुआ है, और वे उच्च जातियों (शर्मा 2015) द्वारा पहचान-आधारित हिंसा के शिकार बने हुए हैं। इसके अतिरिक्त आरक्षण का एक परिणाम यह हुआ है कि निचली जातियों से संबंधित व्यक्तियों को उनकी योग्यता के आधार पर नहीं देखा जाता है, बल्कि उनकी सामूहिक कलंकित जाति पहचान (शाह एवं अन्य 2006) के नजरिएसे देखा जाता है। इसलिए, यह संभव है कि सामाजिक बहिष्कार और बार-बार इस तरह के भेदभाव के संपर्क में आने, और भेदभावपूर्ण व्यवहार किए जाने के संदर्भ में आरक्षण किसी व्यक्ति की मान्यताओं, धारणाओं और आकांक्षाओं को तब भी प्रभावित कर सकता है, जब इसका समग्र आर्थिक लाभ बहुत कम हुआ है।
अध्ययन
हम व्यावहारिक प्राथमिकताओं और सामाजिक व भावनात्मक लक्षणों के महत्वपूर्ण आयामों में जातिगत अंतर की जांच करके पहचान-अर्थशास्त्र पर साहित्य सृजन में योगदान करते हैं (दासगुप्ता एवं अन्य 2020)। इसके लिए हम भारत में दिल्ली के 2000 से अधिक विश्वद्यिालय छात्रों के नमूने में में व्यवहार संबंधी प्राथमिकताओं (जैसे कि प्रतिस्पर्धात्मकता, आत्मविश्वास, जोखिम प्राथमिकताएं एवं समतावाद) तथा सामाजिक व भावनात्मक लक्षणों (कर्तव्यनिष्ठा, बर्हिमुखीपन, सहमतता, अनुभवों के प्रति खुलापन, भावनात्मक स्थिरता, परिस्थिति नियंत्रण3, एवं साहस नामक 'पाँच बड़े'व्यक्तित्व लक्षणों सहित) के मापनहेतु प्रोत्साहन प्रयोग और सर्वेक्षण करते हैं। ये आयाम वर्तमान शोध के परिप्रेक्ष्य में विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं, जो यह दर्शाता है कि श्रम-बाजार के परिणामों को न केवल संज्ञानात्मक कौशल में भिन्नता द्वारा समझाया जा सकता है, बल्कि ये सामाजिक व भावनात्मक लक्षणों (उदाहरण के लिए, डीमिंग 2017) से भी प्रभावित होते है। दुर्भाग्य से यह नकारात्मक आत्म-चित्रण समावेशन इन विशेषताओं को हानिकारक रूप से प्रभावित कर सकता है।
यह अध्ययन 2014 में दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के 15 कॉलेजों में स्नातक कार्यक्रमों में नामांकित छात्रों के बीच किया गया था,जहां एससी/एसटी और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए निश्चित संख्या में सीटें आरक्षित हैं।विभिन्न रिपोर्टों से ज्ञात होता है कि उच्च शिक्षण संस्थानों की प्रकृति बहिष्करण की होती है और यहां आरक्षित समूहों के छात्र अपनी जाति के आधार पर अपने उच्च-जाति के साथियों और शिक्षकों द्वारा भेदभाव का अनुभव करते हैं, और उन्हें कलंकित करने वाली अभिवृत्ति लगातार बनी रहती है (ओविशेगन 2014, देशपांडे 2019)। इसलिए, विश्वविद्यालय का वातावरण हाशिए के अंतर्निहित कारणप्रबलित करता है।
एक अनुभवजन्य ढांचे का प्रयोग किसी छात्र के लिए प्राथमिकताओं और व्यक्तित्व को सहसंबद्ध करने की अनुमति देता है।उसका उपयोग कर हम यह पाते हैं कि सामाजिक , भावनात्मक और व्यावहारिक प्राथमिकताओं के लगभग सभी सूचित उपायों में उच्च जातियों तथा एससी/एसटी एवं ओबीसी जो भेदभाव का सामना करते हैं, के बीच काफी अंतर मौजूद है।नीचे दी गई आकृति 1 में हम दिखाते हैं कि उच्च-जाति के छात्रों की तुलना में निम्न-जाति समूहों से संबंधित, विशेष रूप से एससी/एसटी के छात्र न केवल प्रतिस्पर्धा की कम इच्छा और कम आत्मविश्वास व्यक्त करते हैं, बल्कि वे साहस, परिस्थिति-नियंत्रण क्षमता के साथ-साथ कर्तव्यनिष्ठा, बहिर्मुखीपन, सहमतता, अनुभवों के प्रति खुलापन, तथा भावनात्मक स्थिरताके 'पाँच बड़े’ मापों पर भी कम अंक प्रदर्शित करते हैं। भावनात्मक स्थिरता में कोई बड़ा जातिगत अंतर नहीं हैं। आर्थिक पुनर्वितरण के लिए प्राथमिकताओं के संदर्भ में (जैसा कि कोई भी उम्मीद कर सकता है)हम पाते हैं कि हाशिए के समूहों के छात्र समतावादी विकल्प पसंद करते हैं। इसके अलावा ज्यादातर पहलुओं में ओबीसी उच्च जातियों और एससी/एसटी के बीच ठहरते हैं। हमारे परिणाम भारत में जातिगत आधार पर वर्षों से हो रहे भेदभाव के संचयी प्रभावों की गहराई को दर्शाते हैं।
आकृति 1. व्यवहारिक प्राथमिकताएँ और सामाजिक व भावनात्मक लक्षण: निम्न जातियाँ
नोट: ये आंकड़े 95% विश्वास अंतराल4 के साथ जाति (एससी/एसटी और ओबीसी) के अनुमानित सीमांत प्रभाव प्रदर्शित करते हैं।
आकृति में आए अंग्रेजी शब्दों के हिंदी अर्थ
Competitiveness – प्रतिस्पर्धात्मकता
Confidence – आत्मविश्वास
Risk preference – जोखिम प्राथमिकता
Egalitarianism – समतावादी
Agreeableness – सहमतता
Conscientiousness – कर्तव्यनिष्ठा
Openness to experience – अनुभव के प्रति खुलापन
Grit – साहस
Extraversion – बहिर्मुखीपन
Emotional stability – भावनात्मक स्थिरता
Locus of Control – परिस्थिति नियंत्रण
इसके अलावा हमारे प्रतिदर्श के छात्रों में पारिवारिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में कुछ भिन्नता है जिससे हम यह पता लगा पाते हैं कि क्या बेहतर सामाजिक आर्थिक स्थिति निम्न जातियों के नुकसान को कुछ कम करती है।अल्पसंख्यक समूहों के बच्चे और युवा न केवल अपनी खराब सामाजिक आर्थिक स्थिति के कारण वंचित हैं, बल्कि वे इसलिए भी वंचित हैं क्योंकि वे कम पैतृक आय एवं शिक्षा, और सामाजिक समर्थन की कमी वाले वातावरण में बड़े होते हैं। हमारे परिणामों से संकेत मिलता है कि उच्च सामाजिक आर्थिक स्थिति और निजी-हाई स्कूल में जाना, निम्न-जाति के छात्रों के लिए कुछ प्रतिपूरक प्रभाव डालते हैं, लेकिन यह प्रभाव केवल व्यक्तित्व लक्षणों के एक छोटे से उप-समूह पर ही होता है।
विचार-विमर्श
हमारे निष्कर्ष उल्लेखनीय हैं क्योंकि हम पाते हैं कि एक कुलीन विश्वविद्यालय में शहरी पृष्ठभूमि के छात्रों के बीच भी बड़े पैमाने पर जाति-आधारित मतभेद मौजूद हैं। इसके अलावा, यह मौजूदा साहित्य द्वारा प्रलेखित समग्र पैटर्न के अनुरूप है जिनके अनुसार दुनिया भर से अलग-अलग प्रतिनिधित्व के प्रतिदर्शों में अल्पसंख्यक समूह अपनी पहचान के कारण निम्न व्यक्तिपरक कल्याण व्यक्त करते हैं।हमें प्राप्त परिणाम यह हैं कि निम्न जाति के छात्रों द्वारा व्यक्तित्व लक्षणों पर खुद को कम आंकने के कारण उनकी शैक्षणिक उपलब्धि और श्रम-बाजार सफलता स्पष्ट रूप से प्रभावित होती हैं। इसके अतिरिक्त, किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व और प्राथमिकताओं को विकसित करने में प्रारंभिक जीवन परिस्थितियों के महत्व को ध्यान में रखते हुए इन निष्कर्षों का विशेष महत्व है (फॉक एवं अन्य 2019)।विशेष रूप से, चूंकि हमारे परिणाम यह इंगित करते हैं कि केवल माता-पिता पर ही निवेश किया जाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि सकारात्मक कार्रवाई संबंधी नीतियों की वर्तमान संरचना को फिर से डिज़ाइन करने की तत्काल आवश्यकता है। इसके अंतर्गत ऐसी योजनाओं के क्रिया न्वयन परध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए जो निम्न जाति के परिवार में जन्म लेने के दीर्घकालिक परिणामों को कम करने हेतु बच्चों को कम उम्र में ही लक्षित कर लें। इसके अलावा विश्वविद्यालय में एससी/एसटी और ओबीसी को दिए जाने वाले परामर्शी कार्यक्रमों द्वारा भी संभावित रूप से इस अंतर को कम करने में सहायता मिल सकती है।
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टिप्पणियाँ:
- भारतीय जाति व्यवस्था के अनुसार दलित (आधिकारिक रूप से अनुसूचित जाति) सबसे निचली जातियों के सदस्य हैं जो अस्पृश्यता की प्रथा के अधीन रहे हैं।
- अनुसूचित जनजातियाँ भारत की स्वदेशी जनजातीय जनसंख्या हैं।
- परिस्थिति नियंत्रण के मापक यह मापते हैं कि कोई व्यक्ति यह कितना मानता है कि उनके परिणाम बाहरी कारकों जैसे कि भाग्य की तुलना में उनके कार्यों से प्रभावित होते हैं।
- 95% विश्वास अंतराल अनुमानित प्रभावों के बारे में अनिश्चितता व्यक्त करने का एक तरीका है। विशेष रूप से इसका अर्थ यह है कि यदि आप प्रयोग को नए प्रतिदर्शों के साथ बार-बार दोहराएं तो उस समय की गणना किए गए विश्वास अंतराल के 95% समय में सही प्रभाव होगा।
लेखक परिचय: उत्तीयो दासगुप्ता वैगनर कॉलेज में अर्थशास्त्र के असोसिएट प्रोफेसर हैं। सुभा मणि फोरधाम यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर इंटरनैशनल पॉलिसी स्टडीज़ में अर्थशास्त्र की असोसिएट प्रोफेसर हैं, साथ हीं वे यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया के पॉप्युलेशन स्टडीज़ सेंटर में शोध सहयोगी हैं। स्मृति शर्मा न्यूकैसल यूनिवर्सिटी के बिज़नेस स्कूल में अर्थशास्त्र की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। सौरभ सिंघल लैंकेस्टर यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के लेक्चरर हैं, साथ हीं वे हाउसहोल्ड इन कॉन्फ्लिक्ट नेटवर्क (HiCN) तथा इंस्टीट्यूट फॉर लेबर इकोनॉमिक्स (IZA) में एक शोध सहयोगी हैं।
SOURCE ; ideasforindia
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