6 फरवरी को इंटरनेशनल डे ऑफ जीरो टॉलरेंस फॉर एफजीएम पर विशेष
दुनियाभर में करोड़ों महिलाएं एक ऐसी अमानवीय त्रासदी से गुजरती हैं जिसे फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफजीएम) यानी महिलाओं का खतना कहा जाता है। भारत भी इस बुराई से अछूता नहीं है। भारत में दाऊदी बोहरा समुदाय की महिलाएं इस दर्दनाक त्रासदी को लगातार झेल रही हैं। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी महिलाओं का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन समुदाय की महिलाओं पर गैर लाभकारी संगठन साहियो का 2015-16 में किया गया सर्वेक्षण बताता है कि इस समुदाय की करीब 80 प्रतिशत महिलाओं का खतना हो चुका है। सर्वेक्षण में भारत की 131 बोहरा समुदाय की महिलाएं शामिल थीं। इस प्रथा के समर्थकों का तर्क है कि वे अपनी धार्मिक परंपराओं के निर्वहन और महिलाओं की कामुकता को नियंत्रित करने के लिए इसे अंजाम देते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, दुनियाभर के 30 देशों में करीब 20 करोड़ महिलाओं का खतना हो चुका है। अफ्रीका, मध्य पूर्व और एशिया में इस प्रथा का प्रचलन सबसे ज्यादा है। यह खतना मुख्य रूप से जन्म के बाद 15 साल की आयु तक हो जाता है। यह मुख्य रूप से चार प्रकार से होता है जिसमें बच्चियों के जननांग (क्लाइटोरिस) के ऊपरी हिस्से को आंशिक या पूरी तरह काट दिया जाता है। इस प्रथा से अत्यधिक रक्तस्राव होता है और छोटी उम्र की बच्चियों असहनीय पीड़ा से गुजरना पड़ता है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, यह महिलाओं और बच्चियों के मानवाधिकारों का हनन है और इस पर तत्काल रोक लगाने की जरूरत है।
डब्ल्यूएचओ के डिपार्टमेंट ऑफ सेक्सुअल एंड रिप्रॉडक्टिव हेल्थ एंड रिसर्च के निदेशक इयान आस्क्यू के अनुसार, “एफजीएम केवल मानवाधिकारों का ही गंभीर हनन नहीं है, बल्कि इससे लाखों लड़कियों व महिलाओं के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य पर भी गंभीर असर पड़ता है।” उनका कहना है कि इस बुराई को खत्म करने के लिए अधिक से अधिक निवेश की जरूरत है।
डब्ल्यूएचओ के अनुसार एफजीएम महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव चरम रूप है। यह गहराई तक जड़ जमा चुकी लैंगिंग असमानता को भी प्रदर्शित करता है। संगठन का कहना है कि यह मुख्य रूप से छोटी उम्र में किया जाता है जो बाल अधिकारों का भी हनन है। यह स्वास्थ्य के अधिकार, सुरक्षा और शारीरिक अखंडता का भी हनन है।
साहियो द्वारा फरवरी 2017 में दाऊदी बोहरा समुदाय पर किया गया सर्वेक्षण बताता है कि दाऊदी बोहरा समुदाय की अधिकांश आबादी भारत और पाकिस्तान में हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह समुदाय मध्य पूर्व, पूर्वी अफ्रीका, यूरोप, उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और एशिया के अन्य हिस्सों में चला गया है। साहियो द्वारा इन क्षेत्रों में रहने वाली 385 महिलाओं का ऑनलाइन सर्वेक्षण किया गया। इनमें से 80 प्रतिशत ने माना कि उनका एफसीजी किया गया है। इन महिलाओं एफसीजी के चार प्रमुख कारण बताए। पहला और सबसे बड़ा कारण था धार्मिक आधार (56 प्रतिशत), दूसरा था कामुकता में कमी (45 प्रतिशत), तीसरा परंपरा का निर्वहन (42 प्रतिशत) और चौथा कारण था शारीरिक स्वच्छता (27 प्रतिशत) ।
संयुक्त राष्ट्र ने एफजीएम को खत्म करने के लिए इसे सतत विकास लक्ष्यों के तहत लैंगिग समानता के लक्ष्य में शामिल किया है। 2030 तक इस प्रथा को खत्म करने का लक्ष्य है। दुनिया के कई देशों में इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। लेकिन भारत में इस पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया है।
साहियो की सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, इंडोनिशिया में 14 साल से कम उम्र की आधी लड़कियां एफजीएम से गुजरी हैं। यह प्रथा ओमान, यमन, संयुक्त अरब अमीरात, पाकिस्तान, ईराक, ईरान, मलेशिया, सिंगापुर, थाइलैंड, श्रीलंका, मालदीप, ब्रुनेई, रूस के दागेस्तान और बांग्लादेश में प्रचलन में है। वैश्विक स्तर पर होने वाले पलायन के कारण यह प्रथा यूरोप, उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में भी पहुंच गई है।
इतिहास की जड़ें
यह प्रथा आमतौर पर मुस्लिम समुदाय में प्रचलित है लेकिन कैमरून, मिस्र, माली, सेनेगल, नाइजीरिया, नाइजर, केन्या, सिएया लियोन व तंजानिया में बसे ईसाई धर्म के बहुत से समुदाय में भी इसका प्रचलन है। इथियोपिया के बेला इजराइल यहूदियों में इसका प्रचलन है। अब तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि यह प्रथा कब शुरू हुई थी लेकिन माना जाता है कि ईसाइयत और इस्लाम के पहले से इसका अस्तित्व है। यानी यह प्रथा 2000 साल से भी पुरानी है। ग्रीस इतिहासकार हीरोडोटस के अनुसार, मि्रस में यह प्रथा 500 ईसापूर्व से है। कुछ इतिहासकारों का मत है कि मिस्र की ममियों में भी यह पाया गया है।
कोरोनाकाल में माहवारी वाली महिलाओं-लड़कियों के लिए सैनटरी नैपकिन के संकट ने बढ़ाया सेहत का खतरा
माहवारी करने वाली केवल 18 फीसदी महिलाओं को ही सैनटरी नैपकिन उपलब्ध हो पाता है। कोविड-19 की महामारी के दौरान सैनटरी नैपकिन का इस्तेमाल और ज्यादा कम हो गया है। काम न मिलने के कारण बहुत से लोगों की प्राथमिकता भोजन हासिल करना हो गई और माहवारी को सही तरीके से प्रबंधित नहीं किया जा सका।
खराब तरीके से माहवारी प्रबंधित करने वाली महिलाओं में फंगल व बैक्टरीया वाले संक्रमण हो सकते हैं। यह हेपेटाइटिस बी और सर्विकल कैंसर जैसा जानलेवा जोखिम भी पैदा कर सकते हैं। वहीं, माहवारी को ठीक से प्रबंधित न किया जाए तो संबंधित महिला में भौतिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रभाव पड़ सकते हैं, उसका आत्मविश्वास भी कमजोर हो सकता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल जाने वाली अधिकांश लड़कियां सैनटरी पैड अपने स्कूलों से हासिल करती थीं, कोविड के समय में स्कूल बंद होने के कारण उन्हें यह सुविधा भी नहीं ममिल पाई। महिलाओं के लिए सैनटरी पैड हासिल करना अब भी एक बड़ी चुनौती है।
स्वच्छ भारत-स्वस्थ्य भारत कार्यक्रम के तहत साथी और डोरी सखी ने 72वें गणतंत्र दिवस से एक दिन पूर्व स्वस्थय सखी अभियान केत तहत चेन्नई के केंद्रीय रेलवे स्टेशन और राजीव गांधी गवर्नमेंट जनरल हॉस्पिटल में प्लास्टिक मुक्त सैनटरी नैपकिन बांटकर विश्व रिकॉर्ड कायम किया है। एक दिन के भीतर कुल 20 हजार सैनटरी नैपकिन बांटे गए।
गरीब महिलाओं को बायोडिग्रेडिबल सैनटरी नैपकिन उपलब्ध कराने वाली साथी संस्था के मुताबिक कई महिलाएं माहवारी के दौरान ऐसे अभ्यास करती हैं जो गंभीर तरीके से स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है। मसलन, माहवारी के दौरान खून आदि सोखने के लिए बालू का इस्तेमाल, पुराने कपड़ों का इस्तेमाल, उसी कपड़े का दोबारा इस्तेमाल, सूखी पत्तियों का इस्तेमाल, न्यूजपेपर आदि प्रयोग करती हैं।
साथी और डोरी सखी के इस अभियान को दर्ज करने के लिए गोल्डेन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स के एशिया प्रमुख गौरी शंकर रथी मौजूद थे। वहीं साथी से डॉ मनीष बिश्नोई और तरुण बोथरा व डोरी सखी से नीलम शारदाने अभियान को आगे बढ़ाया। राजस्थान पत्रिका की टीम भी इस अभियान का हिस्सा रही।
घरेलू काम की आर्थिक हैसियत क्या हो?
महिला और महिला के कार्य का मूल्य पर होने वाली ये चर्चा भी कोई आज की नहीं है बल्कि लंबे समय से चली आ रही है
घर में रहने वाली महिला या बाहर से भी सीधा वही आमदनी लेकर नहीं आती तब उसके कार्यों का कोई मूल्य नहीं होता। फोटो: प्रशांत रवि
हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के दौरान की गयी एक टिप्पणी से घरेलू काम काज में लगीं महिलाओं की हैसियत का अंदाज़ा लगाए जाने के चलन पर सवाल खड़े किए हैं और महिला के श्रम, देखभाल के आर्थिक पहलुओं पर बहस खड़ी की है। यह बहस स्वागत योग्य है और बहुप्रतीक्षित है।
महिला और महिला के काम को समाज ने, घर परिवार ने हमेशा दोयम दर्जे पर देखा है। और ये बात कोई आज या कल की नहीं बल्कि सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। एक महिला के काम का अगर सही से आंकलन किया जाये तो शहरी महिला औसतन साढ़े पाँच- छह घंटे घर के काम करती है और गांवों मे रहने वाली महिला औसतन दिन मे पाँच –साढ़े पाँच घंटे घर के काम में देती है। फिर भी अक्सर यही सुनती है कि आखिर वो करती ही क्या है?
जो महिलाएं घर से बाहर निकल कर पैसा कमाने जाती हैं उन्हें फिर भी उपयोगी माना जाता है पर घर में रहने वाली महिला या बाहर से भी सीधा वही आमदनी लेकर नहीं आती तब उसके कार्यों का कोई मूल्य नहीं होता है। हालांकि जिन्हें ‘कामकाजी महिलाएं’ कहा जाता है उन्हें भी घर के रोजमर्या के उन कामों से छूट नहीं है जिन्हें महिला के मत्थे ही मढ़ा गया है। निम्न और मध्य-वित्त आय की नौकरियों में लगीं महिलाओं को अपने दफ्तर, फैक्ट्री या अन्य प्रकार के कार्य-स्थल के अलावे घर के कामों का दोहरा बोझ होता है।
खैर महिला और महिला के कार्य का मूल्य पर होने वाली ये चर्चा भी कोई आज की नहीं है बल्कि लंबे समय से चली आ रही
है। वेतन आयोग हालांकि इन पहलुओं को संज्ञान में लेता रहा है और पुरुष कर्मचारी की तनख्वाह तय करने में उसकी पत्नी, बच्चे और उस पर आश्रित उसके वृद्ध माता-पिता को भी विचार में लिया जाता रहा है। लेकिन यहाँ पत्नी के काम को पुनरुत्पादन के लिए ज़रूरी कारक के तौर पर ही देखा गया।
एक आम महिला सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक अनगिनत मुश्किल कामों को करती है। अगर हम यह कहें कि घर संभालना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है, तो शायद गलत नहीं होगा। दुनिया में सिर्फ यही एक ऐसा पेशा है, जिसमें 24 घंटे, सातों दिन आप काम पर रहते हैं, हर रोज अलग तरह की कठिनाइयों से दो-चार होते हैं। हर डेडलाइन को पूरा करते हैं और वह भी बिना छुट्टी के। सोचिए, इतने सारे कार्य के बदले में वह कोई मेहनताना नहीं लेती। उसके परिश्रम को सामान्यतः घर का नियमित काम-काज कहकर विशेष महत्व भी नहीं दिया जाता। साथ ही उसके इस काम को राष्ट्र की उन्नति में योगदान देने का सम्मान भी नहीं मिलता। जबकि उतना काम नौकर-चाकर के द्वारा कराया जाता, तो अवश्य ही एक बड़ी राशि वेतन के रूप में चुकानी पड़ती।
घर के लगभग सभी कामों का दायित्व एक महिला पर ही होता है , फिर भी कभी इस नजरिए से उसके काम को नहीं देखा जाता कि वह देश और घर में अपना आर्थिक योगदान कर रही है। ऐसी महिलाएं घर की आय में सीधे कुछ नहीं जोड़तीं इसलिए उनके काम की कोई इकनॉमिक वैल्यू नहीं समझी जाती। जीडीपी के नाम से देश की दौलत का जो सालाना हिसाब लगाया जाता है, उसमें वही आय और उत्पादन शामिल होता है जिसमें पैसे का लेनदेन हुआ हो। यह कहने की जरूरत नहीं कि परिवार में एक हाउस वाइफ/होम मेकर की क्या अहमियत होती है और उसके बिना घर-समाज नहीं चल सकता । लेकिन उसके काम को अनउत्पादक समझ लिया जाना, जो उसकी हैसियत को गिराता ही नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व और अस्मिता को भी खत्म कर देता है।
इन दिनों हाऊसवाइफ के अस्तित्व को लेकर ऐसी व्यापक चर्चाएं हैं। सोशल मीडिया पर हाऊसवाइफ की सक्रियता से उन्हीं के बीच ऐसे प्रश्न उछलने लगे हैं कि क्या हाऊसवाईफ का परिवार, समाज और देश के प्रति योगदान नगण्य है? क्या हाऊसवाइफ का कोई अस्तित्व नहीं? क्या उसे आर्थिक निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं? क्या हाऊसवाइफ सिर्फ बच्चे पैदा करने और घर संभालने के लिए होती है? क्यों हाऊसवाइफ का योगदान देश के विकास में एक पुरुष से कमतर आंका जाता हैं? हाउसवाइफ को उनके काम के बदले सैलरी का प्रावधान होना ही चाहिए?
हाल मे इस चर्चा ने फिर से ज़ोर पकड़ा है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस बाबत एक निर्णय दिया है जिसमें एक गृहिणी की दुर्घटना में मौत हो जाने पर बीमा कंपनी ने महिला की जिंदगी की कीमत बहुत कम आँकी थी और इसका आधार यह बताया था कि वह महिला होममेकर यानि गृहिणी थी।और तब मामला कोर्ट मे पहुंचा। आपने जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा भी कि ‘घरेलू काम करने वाली महिलाओं के काम का महत्व किसी भी तरह से उनके पति के काम से कम नहीं है’।
कोर्ट ने यह भी कहा कि होम मेकर्स की अनुमानित आय का आंकलन होना चाहिए और उसके लिए उनके द्वारा किए गए काम को ध्यान में रखना चाहिए।
हाउसवाइफ की घरेलू भूमिका और उसके आर्थिक मूल्यांकन का काम कई मोर्चों पर चल रहा है। हमारे देश में भी और बाहर भी। सन् 2004 में एक हाईकोर्ट भी कह चुका है कि हाउसवाइफ की कम से कम वैल्यू रुपयों में मासिक आय सुनिश्चित होना चाहिए। केरल में हाउसवाइफ के लिए मासिक भत्ते की मांग भी सामने आ चुकी है। बांग्लादेश के वित्तमंत्री का भी मानना रहा है कि हाउस कीपिंग की वैल्यू तय की जानी चाहिए। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। हाउसवाइफ की वैल्यू तो निश्चित हो ही जाएगी लेकिन उससे बड़ा चिंताजनक प्रश्न हाउसवाइफ के अस्तित्व और समाज में उसके सम्मान का है।
इसी साल घर और बच्चों को संभालने वाली महिलाओं को लेकर ऑक्सफैम की एक खास रिपोर्ट आई है जिसमें कहा गया है कि दुनियाभर में घर और बच्चों की देखभाल करते हुए महिलाएं सालभर में करीब 10 हजार अरब डॉलर के बराबर काम करती हैं, जिसका उन्हें कोई पेमेंट नहीं मिलता है.
ऑक्सफैम की मानें तो यह रकम दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी एप्पल के सालाना कारोबार का 43 गुना है. रिपोर्ट में भारत के संदर्भ में कहा गया है कि यहां की महिलाएं घर और बच्चों की देखभाल जैसे बिना वेतन वाले जो काम करती हैं, इसका हिस्सा देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 3.1 प्रतिशत के बराबर है.
घर और बच्चों के संभालने जैसे कामों में शहरी महिलाएं हर दिन 312 मिनट और ग्रामीण महिलाएं 291 मिनट लगाती हैं। जबकि इसकी तुलना में शहरी पुरुष बिना भुगतान वाले कामों में केवल 29 मिनट ही लगाते हैं, जबकि ग्रामीण इलाके में रहने वाले पुरुष 32 मिनट खर्च करते हैं
दरअसल अंतरराष्ट्रीय समूह ऑक्सफैम ने दावोस में विश्व आर्थिक मंच (WEF) की सालाना बैठक से पहले ‘टाइम टू केयर’ नाम से यह रिपोर्ट जारी की गई। रिपोर्ट में भारत से जुड़े एक आंकड़े को लेकर चिंता जताई गई है. जिसमें कहा गया है कि भारत समेत कई देशों में आर्थिक असमानता की वजह से ज्यादा महिलाएं और लड़कियां प्रभावित हो रही हैं। यहां पुरुषों की तुलना में महिलाओं को वेतन वाले काम मिलने के आसार कम होते हैं, यहां तक कि देश के 119 अरबपतियों की सूची में सिर्फ 9 महिलाएं हैं
इसके अलावा रिपोर्ट की मानें तो पुरुषों की तुलना में महिलाओं को काम के बदले कम वेतन मिलता है. यही नहीं, महिलाओं और पुरुषों के वेतन में काफी अंतर है। इसलिए महिलाओं की कमाई पर निर्भर रहने वाला परिवार आर्थिक रूप से कमजोर रह जाता है। देश में स्त्री-पुरुष के वेतन का अंतर 34 फीसदी है। यह भी सामने आया है कि जाति, वर्ग, धर्म, आयु और स्त्री-पुरुष भेदभाव जैसे संरचनातगत कारकों का भी महिलाओं के प्रति असमानता पर प्रभाव पड़ता है।
ऑक्सफैम ने ग्लोबल स्त्री-पुरुष असमानता सूचकांक 2018 में भारत की खराब रैंकिंग (108वें पायदान) का जिक्र करते हुए कहा कि इसमें 2006 के मुकाबले सिर्फ 10 स्थान की कमी आई है। वह वैश्विक औसत से काफी पीछे है। यही नहीं, इस मामले में वह चीन और बांग्लादेश जैसे अपने पड़ोसी देशों से भी पीछे है।
यानि घर पर रहते हुए जो काम महिलाएं करती हैं उनका तो कोई मूल्य मिलता ही नहीं, लेकिन जब बाहर नौकरी करने जाती हैं तो वहाँ भी समान योग्यता के बावजूद पुरुषों के मुक़ाबले कम वेतन ही मिलता है। लिहाज़ा हम उन जटिल स्थितियों की ओर बढ़ रहे हैं, जहां हमारे लिए भी घरेलू काम-काज चुनौती बन कर प्रस्तुत होगा, भले ही हम घरेलू महिलाओं के श्रम को आर्थिक मूल्य देने को तो तैयार हो जाएं, पर क्या उसे समुचित सम्मान भी दे पाएंगे?
यहां जरूरत घर के कामों की सिर्फ कीमत तय करने की नहीं वरन उसके सम्मान को मान्यता देने की है जो मानव सभ्यता के इतिहास का सबसे बड़ा दाय है जिसे दुनिया भर की महिलाओं को लौटाना होगा। पुरुषों को घरेलू काम-काज में बराबर का हाथ बंटाना होगा। महिलाओं के लिए निर्धारित कर दिये गए इस एकाधिकार क्षेत्र को संतुलित करने के लिए पुरुषों को भी सहभागिता निभानी होगी।
घर के काम मे पुरुषों की भागीदारी आधी- आधी करना होगी। क्योंकि सिर्फ महिला के घरेलू काम का मूल्य तय करने की बात करके समाज अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकता। जब बात कीमत निर्धारित करने की होगी तब बहुत सी चीजों का मूल्य तय कर पाना मुश्किल हो जाएगा -उनके प्यार और अपनेपन का, उनके समर्पण का, त्याग का और उनकी चुप्पी का भी।
लेखिका महिलाओं के मुद्दे पर लंबे समय से काम कर रही हैं
source ; downtoearth.
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(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)
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