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टीआरपी विवाद: विश्वसनीयता खो चुका है बार्क, आमूलचूल बदलाव की दरकार

 

टीआरपी व्यवस्था को विश्वसनीय बनाने का काम अब बार्क के आसरे नहीं हो सकता. माना जा रहा है कि रिपब्लिक मामले के बाद बार्क एक निष्पक्ष भूमिका निभाने की स्थिति में है, लेकिन ऐसा नहीं होगा क्योंकि एनबीए के कुछ अन्य सदस्य जैसे इंडिया टुडे टीवी भी इस तंत्र के बेजा इस्तेमाल को लेकर जांच के दायरे में हैं.

 (फोटो साभार: विकीपीडिया)  

रिपब्लिक टीवी के साथ ही टेलीविजन उद्योग का विनियमन करने वाले ब्रॉडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) को अपने लपेटे में लेने वाले टेलीविजन रेटिंग पॉइंट (टीआरपी) घोटाले का एक बेहद अहम आयाम यह है कि कैसे फर्जी दर्शक संख्या और इसके कारण एक चैनल के विज्ञापन राजस्व में वृद्धि ने टेलीविजन जगत में एक सामान्य मनोविज्ञान का निर्माण किया कि एक खास तरह से तराशे गए विभाजनकारी कार्यक्रम पैसों की बारिश कर सकते हैं.

यह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले सत्ता प्रतिष्ठान की सबसे बड़ी कामयाबी थी- कि एक निजी न्यूज चैनल एक ऐसे सम्मोहनकारी की भूमिका में था और यह भ्रम पैदा करने का काम कर रहा था कि बेहद विभाजनकारी विषयवस्तु के इर्द-गिर्द न्यूज डिबेट को केंद्रित करना छप्पर फाड़ कर राजस्व और मुनाफा दिला सकता है.

सत्ता प्रतिष्ठान की यह रणनीति कुछ सालों के लिए कामयाब रही और कई न्यूज चैनल, खासकर हिंदी के न्यूज चैनल रिपब्लिक टीवी की नकल करने लगे और एक समय ऐसा आया कि प्राइम टाइम पर होने वाली बेहद विभाजनकारी बहसें परोसने के मामले में वे एक दूसरे के प्रतिरूप यानी क्लोन सरीखे बन गए.

टाइम्स समूह का टाइम्स नाउ भी रिपब्लिक का क्लोन बन गया, जो अभी जख्मी पक्ष के तौर पर खुद को पेश कर रहा है और अर्णब गोस्वामी के चैनल के व्यूअरशिप को कथित तौर पर फर्जी तरीके से बढ़ाने और इसके परिणामस्वरूप टाइम्स नाउ को पहले स्थान से हटाने, के लिए बार्क के खिलाफ मामला दर्ज करने पर विचार कर रहा है.

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यह तथ्य कि रिपब्लिक और टाइम्स नाउ दोनों ने ही टीआरपी बटोरने के लिए एक ही तरह की सामग्री परोसने की रणनीति अपनाई, सुशांत सिंह राजपूत मामले के मीडिया कवरेज पर बॉम्बे हाईकोर्ट के उस आदेश से साफ जाहिर होता है, जिसमें टीवी चैनलों पर ‘अवमाननाकारी’ और आपराधिक कृत्य के तत्वों से युक्त सामग्री परोसने का दोषी ठहराया गया.

कोर्ट ने जांचकर्ता, वकील और जज तीनों की भूमिका निभाने के लिए खासतौर पर रिपब्लिक और टाइम्स नाउ का नाम लिया. कोर्ट ने चेतावनी दी कि भविष्य में ऐसा कवरेज कानून के दांडिक प्रावधानों को न्योता देगा.

इसी तरह से बॉम्बे हाईकोर्ट ने निजामुद्दीन मरकज़ में तबलीगी जमात के कार्यक्रम के मीडिया कवरेज को भी आड़े हाथों लिया, जिसमें शिरकत करने वालों को मीडिया ने कोरोना वायरस के ‘सुपरस्प्रेडर’ और उससे भी ज्यादा सनकी ढंग से ‘कोरोना बम’ बताकर खलनायक के तौर पर पेश किया.

स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों ने भी अलग से ‘तबलीगी क्लस्टर’ के मामलों का उल्लेख करके और इस तरह से जतलाकर कि वे ही कई हफ्तों तक कोरोना वायरस के प्रसार का कारण थे, आग में घी डालने का काम किया.

टीआरपी घोटाले के संदर्भ में बॉम्बे हाईकोर्ट के इन दो फैसलों का जिक्र करना काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस समयावधि में रचित व्यूअरशिप और एक खास नजरिये से कराई गई बहसें शैतानी तरीके से आपस मिल गईं.

सिर्फ रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ ही नहीं, कई दूसरे न्यूज चैनल भी तयशुदा टीआरपी और विभानकारी बहसों की दोहरी मार के शिकार हुए. टीआरपी घोटाले की जांच से इस दिशा में भी थोड़ी सामान्य स्थिति या कम से कम उसके आभास की बहाली में मदद मिलनी चाहिए.

सबसे पहला काम यह होना चाहिए कि टीआरपी की व्यवस्था को विश्वसनीय बनाया जाए. यह काम अब बार्क के आसरे नहीं हो सकता है क्योंकि यह पूरी व्यवस्था सड़ चुकी है.

 

यह साफ हो चुका है कि बार्क अपनी सारी विश्वसनीयता गंवा चुका है और यह एक निष्पक्ष नियामक के तौर पर काम नहीं कर सकता है.

ब्रॉडकास्ट मीडिया मालिकों के संगठन न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन ने यह सुझाव दिया है कि जब तक मुंबई पुलिस द्वारा शुरू किया गया आपराधिक मामला कोर्ट में अपनी परिणति तक नहीं पहुंच जाता है, तब तक बार्क रिपब्लिक के टीआरपी को रोक दे.

यहां यह मानकर चला गया है कि रिपब्लिक टीवी के मामले के बाहर आ जाने के बाद बार्क एक निष्पक्ष पंच की भूमिका निभाने की स्थिति में है. लेकिन ऐसा नहीं होगा क्योंकि एनबीए के कुछ अन्य सदस्य जैसे इंडिया टुडे टीवी भी इस तंत्र का बेजा इस्तेमाल करने को लेकर जांच के दायरे में हैं.

सामने आए वॉट्सऐप चैट से ऐसा मालूम पड़ता है कि बार्क का प्रबंधन इतना कमजोर था कि रिपब्लिक का स्थायी सहयोगी बनने से पहले यह यह समय-समय पर कई मीडिया मालिकों के दबाव में आता रहा.

बार्क को पूरी तरह से हटा देना और एक विशेष ब्रॉडकास्ट मीडिया कमीशन की स्थापना करना ही अब एकमात्र समाधान है, जिसे टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) के तकनीकी तौर पर ठोस सुझावों के आधार पर टीआरपी प्रणाली के प्रशासन के क्रांतिकारी ढंग से नये तरीकों पर विचार करना चाहिए.

ट्राई ने वास्तव में वर्तमान के हाथों से लगाए जाने वाले टीवी मीटरों के जरिए की जाने वाली सीमित सैंपलिंग, जिसके साथ छेड़छाड़ संभव है, की जगह 100 फीसदी टीवी वाले घरों को शामिल करने वाले व्यूअरशिप के ऑटोमैटिक डिजिटल रिकॉर्डिंग का प्रस्ताव दिया था.

इसका ज्यादातर प्रमुख ब्रॉडकास्टर्स द्वारा विरोध किया गया था, जिसका कारण सबके समझ में आने वाला है. इस कमीशन में सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त जज के साथ एक अच्छे रिकॉर्ड वाले सिविल-सह-टेक्नोलॉजी प्रशासक को होना चाहिए.

वर्तमान व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव करके ही फर्जी टीआरपी और विभाजनकारी बहसों के बीच के नजदीकी रिश्ते को तोड़ा जा सकता है, क्योंकि ये अक्सर एक-दूसरे पर पलते हैं.

ट्राई ने यह सुझाव दिया है कि टीवी व्यूअरशिप के अलावा इंटरनेट पर उसी टीवी प्रोग्राम, जैसे यू-ट्यूब वीडियो के दर्शकों को भी टीआरपी की गणना में शामिल किया जा सकता है. ये नए विचार हैं और व्यवस्था की विश्सनीयता को फिर से कायम करने के लिए इन पर विचार किया जाना चाहिए.

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(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)  

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