10 अगस्त को 'वर्ल्ड लेजीनेस डे' होता है, इस दिन कोलंबिया में लोग गद्दे और बिस्तर लेकर आते हैं और सड़क पर सोते हुए वक्त गुजारते हैं। हर साल इस दिन कोलंबिया का इटैग्यूई शहर आलसियों से भर जाता है। यहां के लोग तनाव से लड़ने के लिए इस दिन को सेलिब्रेट करते हैं ताकि वे अपनी परेशानियों से बाहर आकर सुकून से वक्त बिता सकें। ये परंपरा 1985 से शुरू हुई थी।
जब इटैग्यूई के मारियो मोंटोया को ये विचार आया था कि लोगों के पास सिर्फ आराम का भी एक दिन होना चाहिए। वर्ल्ड लेजीनेस डे पर यहां अजब-गजब प्रतियोगिताएं भी होती हैं।
लेजीनेस पर यह तो बात हुई वैश्विक स्तर की, अब हम आपको बताते हैं भारत के सबसे पहले 'आलसियों के क्लब' के बारे में। 1932-33 में जब नवाबों का दौर था, उस वक्त भोपाल की आबादी 50 हजार से भी कम थी। यहां के लोग हमेशा बेफिक्र और तफरीह पसंद थे। यहां शेरो-शायरी की महफिलें हुआ करती थीं और अगर कुछ न होता था तो पटिये तो आबाद रहते ही थे।
जिगर मुरादाबादी को शरारत सूझी तो ‘काहिलों की अंजुमन’ बनाने की राय दी
मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी साहब का भोपाल आना-जाना लगा रहता था। यहां की बेफिक्र-बेपरवाह महफिलों को देख एक दिन जिगर साहब को शरारत सूझी। उन्होंने राय दी कि क्यों ना एक ‘काहिलों की अंजुमन’ (आलसियों की संस्था) बनाई जाए। सभी मौजूद लोगों ने रजामंदी जाहिर की।
महफिल में शामिल जनाब जौहर कुरैशी ने अपने मकान का एक हिस्सा इसके लिए खुलवा दिया। फिर इसका नाम तय हुआ ‘दार-उल-कोहला’ यानी आलसियों का क्लब। अरबी में दार-उल स्कूल को और आसली को कोहला कहा जाता है। इतना ही नहीं, इस क्लब के कायदे-कानून भी तय हुए।
दार-उल-कोहला के अपने कायदे-कानून भी थे
- मेंबरशिप फीस सिर्फ एक तकिया थी।
- दार-उल-कोहला की सभा का वक्त रात नौ बजे से रात तीन बजे तक था।
- हर मेंबर को रोजाना हाजिरी देनी थी, चाहे बारिश हो या आंधी तूफान।
- दार-उल-कोहला में सोने पर पाबंदी थी।
- लेटा हुआ मेंबर बैठे हुए मेंबर को हुक्म दे सकता था और बैठा हुआ मेंबर खड़े हुए को। मसलन, हुक्का भर कर दो, चाय लाकर दो, पान बना कर खिलाओ।
जिगर मुरादाबादी, खान शाकिर अली खां, शेरी भोपाली जैसे लोग थे इस क्लब के मेंबर
इसके मेंबर भी कोई ऐसे-वैसे लाेग नहीं बल्कि शहर के मशहूर अफसर और रियासत में ऊंचा ओहदा रखने वाले लोग थे। साहित्यकार श्याम मुंशी बताते हैं कि इस क्लब के अध्यक्ष खुद जिगर मुरादाबादी साहब थे। महमूद अली खां इसके सेक्रेटरी थे। खान शाकिर अली खां शेर-ए-भोपाल, मोहम्मद असगर शेरी भोपाली, बासित भोपाली जैसे शहर के आला तालीमयाफ्ता लोग इसके मेंबर थे। श्याम मुंशी ने अपनी किताब ‘सिर्फ नक्शे कदम रह गए’ में भी इसके बारे में लिखा है।
काहिली का यह आलम ऐसा कि बिस्तर पर आग लगने पर भी नहीं उठे
श्याम मुंशी बताते हैं कि इस क्लब में काहिली का यह आलम था कि एक बार एक मौलवी लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। इस बीच, किसी के धक्के से दहकते हुए अंगारों से भरी हुक्के की चिलम उनके ऊपर गिर गई। दरी-चादर और तकिए जलने लगे, तब भी लेटे हुए मेम्बरान में से किसी ने उठने की जहमत नहीं की। बाद में किसी तरह आग को बुझाया गया।
कोई मेंबर हुक्म ना दे दे इसलिए देरी से आने वाले मेंबर लुढ़कते हुए दाखिल होते थे
श्याम मुंशी बताते हैं कि मजा उस वक्त आता था, जब जबरदस्त बारिश हो और तरबतर हालत में भीगते हुए मेंबर दार-उल-कोहला में हाजिरी देने पहुंचते थे। एक और खास बात थी कि कोई लेटा हुआ मेंबर हुक्म ना दे दे, इसलिए इस डर से देरी से आने वाले मेंबर लेटकर, लुढ़कते हुए ही दाखिल होते थे।
वहां पर सारे काम लेटे-लेटे ही होते थे, शेरो-शायरी या किस्सा बयानी और दाद देना वगैरह सब कुछ लेट कर ही होता था। चाय पीते वक्त या खाना खाते वक्त अध्यक्ष के हुक्म से कुछ देर के लिए बैठा जा सकता था।
जिगर साहब के जाने के बाद यह अजीबोगरीब क्लब भी खत्म हो गया
साहित्यकार श्याम मुंशी बताते हैं कि ऐसे लोगों की वजह से दार-उल-कोहला की शोहरत बहुत कम वक्त में पूरे हिन्दुस्तान में फैल गई। अफसोस की बात यह है कि जिगर साहब के जाने के बाद यह अजीबोगरीब क्लब खत्म हो गया और आज इसके मेम्बरान में कोई भी जिंदा नहीं है।
मुंशी के मुताबिक, यह कोई किस्सा नहीं बल्कि असल वाकया है, जो उनके पिताजी ने अपनी आंखाें से देखा और उन्हें बचपन में सुनाया था। श्याम मुंशी कहते हैं कि जिगर साहब यूं तो सारे हिंदुस्तान में घूमते रहे लेकिन दार-उल-कोहला कायम करने के लिए उन्हें भोपाल ही सबसे मुनासिब जगह लगी।
मेरे ख्याल से जिगर साहब भोपाल वालों की काबिलियत, जहानत, हाज़िर जवाबी और सेंस ऑफ ह्यूमर से बहुत प्रभावित थे, लेकिन उनकी काहिली को दार-उल-कोहला बनाकर एक तोहफा दिया था। भोपाल वालों ने भी जिगर साहब के जाते ही दार-उल-कोहला खत्म कर अपनी काहिली का एक और सबूत पेश कर दिया।
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