इस समय ज़रूरत है, सरकार के ख़र्चे में बढ़ोतरी की। यह बढ़ोतरी मेहनतकश जनता के हाथों में सरकार की ओर से हस्तांतरण के रूप में होनी चाहिए और सार्वजनिक शिक्षा व सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए हस्तांतरणों से होनी चाहिए, जो मेहनतकशों को अधिकारसंपन्न बनाते हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय मुद्रास्फीति, आर्थिक गतिरोध और बढ़ते राजकोषीय घाटे के दुष्चक्र में फंसी हुई है। और यह दुश्चक्र, विश्व अर्थव्यवस्था के घटनाविकास के चलते और घातक हो जाने वाला है।
ओमीक्रॉन की मौजूदा लहर के आने से पहले भी, 2021-22 के सरकारी अनुमानों तक में जीडीपी की वृद्धि दर, पिछले साल के मुकाबले 9.2 फीसद ज्यादा रहने की ही बात कही जा रही थी। लेकिन, पिछले साल तो खुद ही महामारी के चलते जीडीपी में 7.3 फीसद संकुचन दर्ज किया गया था। इसलिए, अगर सरकारी अनुमान अंतत: एकदम सही साबित हो तब भी, 2021-22 में जीडीपी, 2019-20 के मुकाबले सिर्फ 1.22 फीसद ऊपर रहने जा रहा है यानी 2021-22 में भारत, बड़ी मुश्किल से जीडीपी के 2019-20 के स्तर तक ही दोबारा पहुंच पाएगा। लेकिन, अब ओमीक्रॉन वायरस के आने के बाद, उस स्तर तक भी पहुंचना संभव नहीं है और हमारा चालू वर्ष का जीडीपी, 2019-20 से नीचे ही रहने जा रहा है।
इसके ऊपर से, चालू वर्ष में, 2019-20 के मुकाबले वास्तविक खर्च में जो बहाली हुई भी है, वह भी कोई घरेलू या सरकारी उपभोग के क्षेत्र में नहीं हुई है। इसका अर्थ यह है कि इस दौरान उत्पादन क्षमताओं में बढ़ोतरी तो हुई है, इसके बावजूद उपभोग तो 2019-20 के स्तर से नीचे ही बना रहा है। इसका अर्थ यह है कि क्षमता उपयोग के अनुपात में कमी ही होगी और सूरत में निवेश की वर्तमान रफ्तार भी बनाए रखना संभव नहीं होगा। इसलिए, खुद निवेश का स्तर भी घट जाएगा, जिससे (गुणनकारी के चलते) उपभोग में गिरावट और बढ़ जाएगी। इसलिए, 2019-20 की तुलना में, जीडीपी वृद्धिके इस स्तर को भी बनाए नहीं रखा जा सकेगा।
इस तरह, जो आर्थिक बहाली नजर भी आ रही है, वह भी एक तो बहुत ही मामूली है और उसके ऊपर से उसको बनाए रखे जाना भी संभव नहीं है। कुछ लोग इसे, रोमन के वी (V) अक्षर के विपरीत, के अक्षर के आकार वाली बहाली कह रहे हैं। बहरहाल, इस आर्थिक बहाली के आकार को चाहे जो भी माना जाए, यह साफ तौर पर ऐसी बहाली का मामला है, जिसे जनता के हाथों में क्रय शक्ति की कमी सीमित कर रही होगी।
बहरहाल, हम यहां दो अलग-अलग कारकों को काम करते देख रहे हैं। इनमें एक कारक तो खास महामारी से ही जुड़ा हुआ है। महामारी के चलते हुए लॉकडाउन में, जब मेहनतकशों के पास कोई आय नहीं थी और उन्हें सरकार से किसी भी मदद के बिना ही किसी तरह से अपनी प्राण रक्षा करनी पड़ रही थी, इसके चलते उन पर कर्जे चढ़ गए थे। इस सूरत में, जब भी कुछ आर्थिक बहाली शुरू होती है और उनके हाथ में कुछ आय आने लगती है, तो स्वाभाविक रूप से उनकी एक प्राथमिकता तो अपना ऋण उतारने की ही होती है और इसके लिए, उन्हें उपभोग में कटौती करनी होती है। इसलिए, निवेश तथा सरकार के खर्च का गुणनकारी प्रभाव, सामान्य से काफी कम रह जाता है और इस तरह का सीमित उपभोग, निवेश को नीचे लाने का ही काम करता है। यह अपने आप में आर्थिक बहाली को कुंठित करने के लिए काफी होता, बशर्ते सरकार इसकी पूर्ति करने के लिए अपनी ओर से अतिरिक्त खर्चा नहीं कर रही होती या सरकार हस्तांतरणों के जरिए जनता के हाथों में क्रय शक्ति नहीं पहुंचा रही होती, जिसकी मांग व्यापक रूप से राजनीतिक पार्टियों, अकादमिकों तथा सिविल सोसाइटी संगठनों द्वारा पहले ही की जाती रही है।
दूसरा कारक, महामारी से पूरी तरह से अलग है और इसका संबंध सरकार की राजकोषीय रणनीति से है, जो महामारी के आने से पहले भी साफ-साफ देखी जा सकती थी। यह रणनीति यही है कि निवेश को उत्प्रेरित करने के नाम पर, अमीरों को कर रियायतें दी जाएं और इस तरह की रियायतों को मेहनतकश जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ाने के जरिए प्रति-संतुलित किया जाए, जिससे राजकोषीय घाटे में और कोई बढ़ोतरी नहीं होने पाए तथा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को खुश रखा जा सके। मोदी सरकार ने, 2016 में संपत्ति कर को खत्म कर दिया था। बेशक, तब भी इस कर से कोई बहुत ज्यादा राजस्व नहीं मिल रहा था, फिर भी यह कदम अपने आप में एक इशारा करता था। इसके बाद, 2019 में इस सरकार ने एक अध्यादेश के जरिए, कार्पोरेट कर की दर 30 फीसद से घटाकर 22 फीसद कर दी। इस तरह के कदमों के जरिए जो राजस्व छोड़ा जा रहा था, उसकी भरपाई अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाने के जरिए तथा खासतौर पर पेट्रोलियम उत्पादों पर करों को बढ़ाने के जरिए की जा रही थी। आइए, अब एक नजर इस तरह की रणनीति के निहितार्थों पर डाल ली जाए--
आइए, उदाहरण को सरल बनाने के लिए हम यह मान लेते हैं कि राजकोषीय घाटे के शून्य के स्तर से शुरूआत की जा रही है और यही लक्ष्य है जिस पर कायम रहने का, वित्तीय पूंजी भारत से तकाजा करने जा रही है। ऐसी सूरत में अगर सरकार कार्पोरेट कर रियायतों के रूप में 100 रुपये का राजस्व छोड़ रही है और वह मेहनतकश जनता के उपभोग की अनेक वस्तुओं पर अप्रत्यक्ष कर वसूल करने के जरिए इतनी ही राशि जुटाना चाहती है, तो इससे फौरन ही इन वस्तुओं के दाम बढ़ जाएंगे यानी मुद्रास्फीति पैदा हो जाएगी। लेकिन, चूंकि इस बीच मेहनतकशों की रुपयों में आय में बढ़ोतरी तो हो नहीं रही होगी, उन्हें इन माल या वस्तुओं के उपभोग में ही कटौती करनी पड़ रही होगी क्योंकि उनकी वास्तविक क्रय शक्ति घट गयी होगी। उपभोग में इस तरह की कटौती से, अर्थव्यवस्था में अनबिके माल के भंडार बढ़ जाएंगे और इन बढ़े हुए भंडारों को पहले के स्तर पर लाने के लिए ही, उत्पादन के स्तर में कटौती करनी पड़ेगी। इसलिए, इस तरह की रणनीति का नतीजा तत्काल मुद्रास्फीति से संचालित मंदी के रूप में सामने आएगा।
लेकिन, उत्पाद में कटौती होने से, अप्रत्यक्ष कर लगाने के जरिए हासिल होने वाला कर राजस्व 100 रुपये से तो कम ही कम रहेगा और इसके चलते, शुरुआत में शून्य राजकोषीय घाटे की जो स्थिति हम मानकर चले हैं, उसके मुकाबले कुछ न कुछ राजकोषीय घाटा बना ही रह जाएगा। इस तरह, हमें एक साथ मुद्रास्फीति, मंदी और बढ़ते राजकोषीय घाटे का योग देखने को मिल रहा होगा। इस समय भारत में हमें यही देखने को मिल रहा है।
लेकिन, यह किस्सा इतने पर ही खत्म नहीं हो जाएगा। अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोतरी के चलते, उत्पाद में होने वाली कमी का नतीजा यह होगा कि स्थापित उत्पादन क्षमता के उपयोग का अनुपात नीचे आ जाएगा। और चूंकि अर्थव्यवस्था में बिना उपयोग के पड़ी उत्पादन क्षमता का अनुपात बढऩे से, पूंजीपति निवेश के अपने मंसूबों में कटौती करेंगे। इस तरह, हालांकि शुरुआत के तौर पर कर रियायतों के रूप में पूंजीपतियों के हाथों में 100 रुपये यह कहकर ही पकड़ाए जा रहे होंगे कि इससे उनका निवेशों का स्तर और ऊपर उठ जाएगा। लेकिन, इस तरह की पूरी तरह से दिग्भ्रमित नीति का नतीजा इससे ठीक उल्टा निकलेगा यानी निवेश का स्तर और घट जाएगा।
इस तरह, महामारी के चलते किए गए लॉकडाउन के दौरान, इस सरकार ने मेहनतकश जनता के लिए राजकोषीय सहायता के मामले में जो कंजूसी बरती है, वह अन्य सभी प्रमुख पूंजीवादी ताकतों ने, जिसमें अमेरिका तथा यूरोपीय यूनियन भी शामिल हैं, जिस तरह का रुख अपनाया है, उससे ठीक उल्टा रास्ता अपनाए जाने को दिखाती है। लेकिन, मेहनतकश जनता की सहायता के मामले में इस राजकोषीय कंजूसी को, राजकोषीय नीति की अपेक्षाकृत दीर्घतर अवधि की उसकी विकृति के ऊपर से थोप दिया गया है, जो पहले ही इस विकृति के न होने की स्थिति में जो हुआ होता उसके मुकाबले ज्यादा बेरोजगारी, बढ़ी हुई मुद्रास्फीति तथा मेहनतकश जनता का कहीं ज्यादा दारिद्रीकरण और निवेश का कमतर स्तर, पैदा करने जा रहा था।
इसलिए, इस समय हमारी अर्थव्यवस्था जिस दुष्चक्र में फंसी हुई है, उस ख़राब राजकोषीय रणनीति का भी नतीजा है, जिस पर यह सरकार काफी अर्से से चलती आ रही थी और जिसके पीछे वास्तव में कोई तुक ही नहीं थी। दावोस शिखर सम्मेलन के मौके पर, अनेक अमरीकी अरबपतियों ने अपनी मर्जी से जो इसकी मांग की थी कि उन पर ज्यादा कर लगाया जाए, तो यह मांग कोई उन्होंने अपने ‘देशभक्त’ होने की वजह से नहीं की थी, जैसा कि मीडिया ने बताने की कोशिश की है। यह मांग तो उन्होंने इसलिए की है कि उन्हें इसका अंदाजा है कि वे जिस व्यवस्था के शिखर पर बैठे हुए हैं, उस व्यवस्था मात्र के लिए संपदा तथा आय की बहुत तेजी से बढ़ती असमानताओं के कितने भयानक सामाजिक दुष्परिणाम हो सकते हैं। लेकिन, ठीक उसी समय पर मोदी सरकार, हालांकि यह उसकी संवैधानिक जिम्मेदारी बनती है कि इस तरह की असमानताओं के बढऩे पर अंकुश लगाए, अपने गोदी देसी अरबपतियों को खुश करने के लिए, इससे ठीक उल्टे ही रास्ते पर चल रही है। इसी प्रकार, कार्पोरेट कर की दरें घटाने के इस सरकार के कदम, बाइडेन प्रशासन प्रयासों से ठीक उल्टी दशा में हैं। बाइडेन प्रशासन, कार्पोरेट कर के जरिए कहीं ज्यादा कर राजस्व जुटाने की कोशिश कर रहा है और इसके लिए उसने दूसरे देशों की सरकारों को इसके लिए राजी करने के लिए काफी मेहनत की है कि आम सहमति से एक न्यूनतम अंतरराष्ट्रीय कार्पोरेट कर दर तय कर दी जाए, ताकि कार्पोरेटों द्वारा कर चोरी पर अंकुश लगाया जा सके।
बेशक, इस तरह की औंधी राजकोषीय रणनीति भारत में, मोदी सरकार के सत्ता में आने से पहले से सामने आ चुकी थी। इससे पहले सत्ता में रही यूपीए सरकार भी, कर रियायतों के जरिए पूंजीपतियों की ‘आदिम भावनाओं’ को बढ़ावा देने के लिए उत्सुक थी, ताकि वे और ज्यादा निवेश करें। लेकिन, मोदी सरकार ने इस रणनीति को और बहुत आगे पहुंचा दिया है। और इस रणनीति के और भी ज्यादा बंधनकारी हो जाने का खतरा है क्योंकि तेल के अंतर्राष्ट्रीय दाम बढ़ रहे हैं और ये दाम जल्द ही बढ़कर 100 डालर प्रति बैरल तक पहुंच जाने के आसार हैं। इससे मुद्रास्फीति और बढ़ जाने वाली है, जो मंदी को और बढ़ाने जा रहा है। ऐसा एक तो इसलिए हो रहा होगा कि मेहनतकश जनता के हाथों में वास्तविक क्रय शक्ति में और कमी हो रही होगी। इसके अलावा, ऐसा इसलिए भी होगा कि सरकार, मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए आर्थिक गतिविधियों के लिए संकुचनकारी नीतियों पर चल रही होगी।
तो देश इस दलदल से बाहर कैसे निकल सकता है? इस समय जरूरत है, सरकार के खर्चें में बढ़ोतरी की। यह बढ़ोतरी मेहनतकश जनता के हाथों में सरकार की ओर से हस्तांतरण के रूप में होनी चाहिए और सार्वजनिक शिक्षा व सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए हस्तांतरणों से होनी चाहिए, जो मेहनतकशों को अधिकारसंपन्न बनाते हैं। ऐसे बढ़े हुए खर्चों के लिए, अमीरों पर लगने वाले करों में भारी बढ़ोतरी के जरिए, संसाधन जुटाए जाने चाहिए। दूसरे शब्दों में, जरूरत इसकी है कि उस औंधी राजकोषीय रणनीति को पलटा जाए, जिस पर सरकार अब तक चलती आयी है।
ऐसा करने से, एक सकारात्मक चक्र चल पड़ेगा। मेहनतकश जनता के हाथों में और ज्यादा क्रय शक्ति आने से और शिक्षा व स्वास्थ्य पर सरकार के खर्चों में बढ़ोतरी से, अर्थव्यवस्था में मांग में उठान आएगा। कर रियायतों के रूप में अमीरों के हाथों में अतिरिक्त क्रय शक्ति देने से जो होता, इस सूरत में उससे उल्टा हो रहा होगा। इसकी वजह यह है कि अमीर, इस अतिरिक्त क्रय शक्ति को घरेलू तौर पर उत्पादित मालों के अतिरिक्त उपभोग में खर्च नहीं करते हैं। इसकी वजह यह है कि ऐसी अतिरिक्त आय के हर रुपये में से उनका उपभोग का खर्च वैसे भी बहुत कम होता है और थोड़ा बहुत उपभोग पर जो खर्च होता भी है, उसका भी अपेक्षाकृत बड़ा हिस्सा आयात मांग के रूप में संबंधित अर्थव्यवस्था के बाहर रिस जाता है। दूसरी ओर, इस अतिरिक्त क्रय शक्ति का वे अतिरिक्त निवेश के लिए भी उपयोग नहीं करते हैं क्योंकि निवेश का स्तर, अर्थव्यवस्था में स्थापित उत्पादन क्षमता के उपयोग के अनुपात जैसे अन्य कारकों से तय होता है, न कि इससे कि धनिकों के हाथों में कितने संसाधन हैं।
इतना ही नहीं, इस तरह की रणनीति के, अर्थव्यवस्था में बहाली आने तथा उसे दुष्चक्र से निकालने जैसे प्रत्यक्ष आर्थिक परिणामों के अलावा, इससे मेहनतकश जनता को और अधिकारसंपन्न बनाने के जरिए, देश में जनतंत्र को और ताकत मिल रही होगी। लेकिन, असली सवाल तो यह है कि क्या मोदी सरकार इस बजट में, ये स्वत:स्पष्ट तथा आवश्यक कदम उठाएगी।
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