तपती धूप में 49 साल का एक आदमी एम्बुलेंस से शव निकाल रहा था। उसके शरीर पर न पीपीई किट थी, न हाथों में ग्लव्स थे। वो कोरोना के चलते मरने वाले उन शवों का अंतिम संस्कार कर रहा था, जिनके करीब परिजन भी बिना पीपीई किट पहने नहीं जा रहे।
वो शव को निकालता, फिर चिता पर रखता। परिजन को मृतक का चेहरा दिखाने के लिए पीपीई किट को थोड़ा सा खोलता। फिर आग देने के बाद चिता के करीब ही खड़ा रहता। बीच-बीच में डंडे से जल रही लकड़ियों को इधर-उधर करता।
ऐसा करते हुए प्रदीप कनौजिया के चेहरे पर कोई डर नहीं था। वे पिछले 35 सालों से भोपाल के भदभदा मुक्तिधाम में सेवाएं दे रहे हैं। मुक्तिधाम में ही रहते हैं। यहीं खाते-पीते हैं। परिवार में दो बेटियां, पत्नी हैं। उनसे मिलना होता है तो उन्हें मुक्तिधाम में ही मिलने बुला लेते हैं।
कोरोना के बाद से घर जाना न के बराबर कर दिया। वे लोग आते भी हैं तो दूर से मिलते हैं। अपना खाना खुद बनाते हैं और दिन-रात शवों को अग्नि देने का ही काम करते हैं। शुक्रवार को प्रदीप ने रात पौने बारह बजे एक कोरोना मरीज के शरीर का अंतिम संस्कार करवाया था। फिर नहाया और खाना रात में डेढ़ बजे खाया।
ऐसा क्यों करना पड़ा? इस पर बोले, वो किसी साहब के रिश्तेदार का मामला था। घर में ही कोरोना से मौत हुई थी। शव मुक्तिधाम पहुंचते-पहुंचते रात के पौने बारह बज गए तो फिर रात में ही अंतिम संस्कार करना पड़ा।
प्रदीप को पहले भी कई दफा देर रात शवों का अंतिम संस्कार करना पड़ा है, क्योंकि वे कोरोना मरीज का शव रात में रोककर नहीं रखना चाहते। कहते हैं, वैसे तो हम शाम 7 बजे तक ही शव लेते हैं, लेकिन अब यदि कोई दरवाजे पर आ ही गया तो फिर उसे ये थोड़ी कहेंगे कि आप बॉडी लेकर वापस चले जाओ। कई बार एम्बुलेंस रातभर यहीं खड़ी हो जाती है तो सुबह-सुबह अंतिम क्रिया कर देते हैं।
भारत में अब तक कोरोना से 69 हजार से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं। इनमें से प्रदीप अकेले अब तक 400 से ज्यादा शवों का अंतिम संस्कार कर चुके हैं। आप पीपीई किट क्यों नहीं पहनते? इस सवाल पर प्रदीप कहते हैं, हमें हर तीन से चार दिन में दस-दस किट मिलती हैं। शवों का अंतिम संस्कार करने वाले हम तीन लोग हैं, इसलिए किट एक दिन में ही खत्म हो जाती है।
फिर अगले दो-तीन दिन बिना किट के ही काम करना पड़ता है। प्रदीप के मुताबिक, इतनी तेज धूप में किट पहनकर अंतिम संस्कार करना भी बहुत बड़ी मुश्किल है। पूरा शरीर पसीना-पसीना हो जाता है। घबराहट होने लगती है। प्रदीप को मुक्तिधाम से हर माह 6 हजार रुपए मिलते हैं, यानी 200 रुपए दिन। वहीं अन्य दो जो लोग हैं, उन्हें आम लोग जो पैसा देकर जाते हैं, उनमें से कुछ हिस्सा मिल जाता है।
प्रदीप सिर्फ शवों का अंतिम संस्कार ही नहीं कर रहे बल्कि अस्थियां संभालने का काम भी कर रहे हैं। दरअसल कोरोना के मरीजों के शव अलग-अलग जगहों के होते हैं। कोई दिल्ली, कोई मुंबई तो कोई ग्वालियर। शव को जलने में चार से पांच घंटे लगते हैं। कोरोना के चलते अधिकतर का परिवार क्वारैंटाइन होता है। कोई आता भी है तो पांच घंटे नहीं रुकता।
प्रदीप अलग-अलग थैलियों में अलग-अलग शवों की अस्थियां रखते हैं और उन पर पहचान के लिए अलग-अलग निशान लगा देते हैं। कहते हैं, जो आता है वो मेरा नंबर लेकर जाता है। अंतिम संस्कार होने के दस-पंद्रह दिनों बाद वो लोग आते हैं और अस्थियां ले जाते हैं। तब तक अस्थियों को संभालकर रखना पड़ता है।
मुक्तिधामों में कई दफा ऐसा भी हो रहा है कि शव तो आ गया लेकिन परिजन नहीं आए। ऐसे में परिजन के इंतजार में शव कई घंटों तक रखा जाता है। कई बार एक साथ कई शव आ जाते हैं तो फिर घंटों का इंतजार भी हो जाता है क्योंकि हर मुक्तिधाम में कोरोना मरीजों के अंतिम संस्कार के लिए अलग से जगह बनाई गई है।
प्रदीप कहते हैं, पिछले महीने कई बार ऐसा भी हुआ कि एक दिन में मैंने दस से ग्यारह शवों का अंतिम संस्कार किया। दिन में चार से पांच बार नहाना पड़ता है। दिन में तो अच्छे से खाना भी नहीं हो पाता। नाश्ता ही करता हूं। खाना तो रात में ही होता है। हालांकि, उन्हें मुक्तिधाम समिति से पूरा सहयोग मिल रहा है।
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